9.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

पुस्तक मेला: किसी ने आधा व्यवसाय आधा मिशन तो किसी ने बताया संस्कृति का संवाहक

पूर्णिया : यह सच है कि कोई भी पौराणिक पर्व या मेला परंपरा का प्रतीक माना जाता है और वह कहीं न कहीं संस्कृति से जुड़ा होता है. मगर, इसके पीछे का एक सच यह भी है कि किसी भी मेले में आने वाली दुकानें व्यावसायिक सोच के तहत ही सजती हैं. वैसे पुस्तक मेला […]

पूर्णिया : यह सच है कि कोई भी पौराणिक पर्व या मेला परंपरा का प्रतीक माना जाता है और वह कहीं न कहीं संस्कृति से जुड़ा होता है. मगर, इसके पीछे का एक सच यह भी है कि किसी भी मेले में आने वाली दुकानें व्यावसायिक सोच के तहत ही सजती हैं. वैसे पुस्तक मेला की बात और है पर प्रबुद्ध पाठक भी आज इस पर बहस कर रहे हैं कि पूर्णिया के परिदृश्य में उस मेला पर पुस्तक संस्कृति हावी है या फिर पुस्तक व्यवसाय? इस पर लोगो की अलग-अलग सोच है.

क्या है तथ्य,कितना सच : आमतौर पर व्यावसायिक प्रतिष्ठान खोलने के लिए भूखंड के या तो दाम देने पड़ते हैं अथवा उसका किराया चुकाना पड़ता है. यहां पुस्तक मेला के लिए मंदिर ट्रस्ट की ओर से सशुल्क भूखंड उपलब्ध कराया गया है. आयोजन समिति के संयोजक निलेश कुमार बताते हैं कि यह मेला पुस्तक संस्कृति को समृद्ध करने का प्रयास मात्र है, व्यवसाय कहीं से भी नहीं.
कई पुस्तक विक्रेता कहते हैं कि यहां स्टाल लगाने के लिए कुछ खर्च जरूर देने पड़े हैं पर मेले का असली स्वरूप संस्कृति पर आधारित है. आयोजन समिति के गोविन्द दास कहते हैं कि पुस्तक मेला पूरी तरह मिशन है और यही वजह है कि साहित्यकारों का समर्थन मिल रहा है.
आधी हकीकत आधा फसाना : पुस्तक मेला में आये प्रकाशक इसे व्यवसाय नहीं बल्कि संस्कृति का एक हिस्सा मानते हैं. उनकी मानें तो यह मेला सही मायने में घाटे का सौदा होता है और वे पाठकों व किताबों के बीच रिश्ता कायम करने की मंशा से ही ऐसे आयोजनों में शामिल होते हैं.
वैसे यह कोशिश जरूर होती है कि अधिक से अधिक पुस्तकें बिक जाएं. कई विक्रेता स्वीकार करते हैं कि यह मेला आधा व्यवसाय और आधा मिशन है जबकि नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से आए सुदर्शन प्रसाद कहते हैं कि भले ही कोई इसे व्यवसाय कह ले पर यह मेला सही मायने में पुस्तक संस्कृति की संवाहक है.
मेला में उपल्बध महत्वपूर्ण किताबें
5000 से अधिक कहानी की किताबें सजी हैं पुस्तक मेला में
3500 उपन्यास की पुस्तकें सजायी गयी हैं स्टालों पर
1800 कविता संग्रह की किताबें हैं पाठकों के लिए तैयार
1615 किताबें अलग-अलग नाटकों की भी लायी गयी हैं
1000 किताबें आलोचना-समालोचना से जुड़ी किताबें हैं सुलभ
बढ़ती है पढ़ने की प्रवृत्ति
प्रबुद्ध पाठकों का मानना है कि अनाज, किराना और स्टेशनरी की दुकानों से पुस्तक मेला की तुलना नहीं की जा सकती. यहां व्यवसाय गौण हो जाता है और संस्कृति हावी हो जाती है. प्रो. डा. एस.के. साहा का मानना है कि यह सौ फीसदी संस्कृति का एक हिस्सा है जो बाजार की कैद में है. इससे परे यह बात दीगर है कि ऐसे आयोजन से पढ़ने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है.
मेला नहीं सरस्वती उत्सव
पुस्तक प्रेमियों का एक ऐसा भी तबका है जो संस्कृति और व्यवसाय से हट कर सरस्वती का उत्सव मानता है. मेले में शिरकत करने आए कई शिक्षकों ने कहा कि यहां अक्षरों के साथ ज्ञान का अकूत भंडार है जिसका सीधा सम्बन्ध सरस्वती से है. वे बताते हैं कि यहां छात्रों के लिए कई दुर्लभ पुस्तकें भी हैं जो आसानी से नहीं मिलतीं. यही वजह है कि इसे सरस्वती उत्सव कहना गलत नहीं है.
क्या कहते हैं प्रबुद्ध
जागृति प्रकाशन की ओर से आए विपीन कुमार कहते हैं कि पुस्तक मेला में व्यवसाय की बात कम होती है जबकि प्रकाशकों का पूरा ध्यान संस्कृति पर रहता है. इधर, कई पाठकों का कहना है कि इसमें संस्कृति पर व्यवसाय हावी है.
इसका तर्क देते हुए वे कहते हैं कि पुस्तकों के दाम इतने अधिक हैं कि चाहत के बवजूद जेब क्रय करने की इजाजत नहीं देती. यहां तो जेब और दाम में कोई तालमेल ही नहीं है. पाठकों का मानना है कि इसके लिए सार्थक पहल की जानी चाहिए.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें