Shri Krishna Sinha: साल था 1957. अनुग्रह नारायण सिंह का निधन हुए अभी कुछ ही महीने हुए थे और बिहार की राजनीति अपने सबसे अस्थिर दौर में थी. कांग्रेस के भीतर गुटबाजी, जातीय समीकरण और सत्ता की भूख उस स्तर पर पहुंच चुकी थी जहां आदर्श सिर्फ भाषणों में बचा था. इसी माहौल में दो पुराने मित्र जयप्रकाश नारायण और मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े थे.
दोनों स्वतंत्रता संग्राम के साथी, दोनों बिहार की राजनीति के स्तंभ और दोनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए. लेकिन 1957 की गर्मियों में लिखी गई कुछ चिट्ठियां इस दोस्ती की दीवार में दरार बनकर दर्ज हुईं. ऐसी दरार जो सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच नहीं, बल्कि राजनीति और नैतिकता के बीच खिंच रही थी.
पत्रों में राजनीति का जहर

जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने 20 जुलाई 1957 को रांची से श्रीकृष्ण सिन्हा को जो पत्र लिखा, वह एक चेतावनी की तरह था. उन्होंने लिखा —
“मुझे लगता है कि बिहार की राजनीति अब सत्ता के दलदल में फंस चुकी है. मैं पचपन साल का आदमी हूं, कोई बच्चा नहीं कि कोई मुझे इस्तेमाल करे.” जेपी ने यह आरोप लगाया कि श्रीबाबू (श्रीकृष्ण सिंह) और उनके सहयोगी उन्हें नीचा दिखाने और सर्वोदय आंदोलन को राजनीतिक खतरे की तरह देखने लगे हैं.
उनका मानना था कि सत्ता में बैठे लोग अब जनसेवा से ज्यादा ‘पद संरक्षण’ में दिलचस्पी ले रहे हैं. चिट्ठी में उन्होंने अपने मन का दर्द साफ शब्दों में उकेरा —
“तुम्हारे आस-पास वे लोग हैं जो तुम्हारे नाम पर स्वार्थ का व्यापार कर रहे हैं. राजनीति का यह रूप मुझे डराता है.”
सत्ता बनाम सिद्धांत
श्रीकृष्ण सिन्हा ने जवाब में एक लंबा पत्र लिखा. उसमें उन्होंने कहा कि जयप्रकाश की बातें उनके लिए दुखद हैं क्योंकि वे उन्हें गलत समझ रहे हैं. उन्होंने लिखा —
“राजनीति कोई तपश्चर्या नहीं, बल्कि जिम्मेदारी है. अगर हम शासन नहीं करेंगे तो अराजकता बढ़ेगी. आदर्शों के साथ व्यावहारिकता भी जरूरी है. ” यह वही समय था जब कांग्रेस में “आदर्श बनाम प्रशासन” की बहस चरम पर थी.

जेपी राजनीति को नैतिक आंदोलन मानते थे, श्रीबाबू उसे शासन की स्थिरता का माध्यम समझते थे. यही वैचारिक अंतर धीरे-धीरे व्यक्तिगत असहमति में बदल गया. अनुग्रह नारायण सिंह की मृत्यु के बाद कांग्रेस के भीतर जो खालीपन पैदा हुआ, उसे भरने की कोशिशें जातीय और गुटीय राजनीति में उलझ गईं.
जेपी को लगा कि श्रीकृष्ण सिन्हा ने “कांग्रेस को एक नैतिक संस्था से सत्ता-प्रेमी संगठन” में बदल दिया है. उनके पत्रों में यह वाक्य बार-बार आता है “यह वही कांग्रेस नहीं रही जिसके लिए हमने जेलें काटीं.”
वहीं श्रीकृष्ण सिन्हा का जवाब था “हम जनता की उम्मीदों से बंधे हैं. आंदोलन और शासन में फर्क होता है.”
जेपी और श्रीबाबू दोनों के बीच का संबंध केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि आत्मीय भी था. स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में दोनों ने एक-दूसरे के साथ जेलें काटी थीं, सभाओं में मंच साझा किया था. लेकिन जब सत्ता आई, तो रास्ते अलग हो गए—
जेपी सर्वोदय और समाजवाद की राह पर निकल पड़े, जबकि श्रीकृष्ण सिन्हा ने शासन के यथार्थ को स्वीकार किया. इतिहासकार लिखते हैं कि “इन पत्रों में झलकता है उस दौर का नैतिक संकट, जहां दोस्त भी एक-दूसरे से राजनीतिक रूप से खतरा महसूस करने लगे थे.”
इन चिट्ठियों के बीच बिहार की राजनीति में जातीयता का नया अध्याय खुल रहा था. जेपी को लगता था कि श्रीबाबू के आसपास “ब्राह्मणवादी और प्रशासनिक वर्चस्व” मजबूत हो रहा है, जबकि समाज का बड़ा हिस्सा इससे अलग-थलग पड़ता जा रहा है. दूसरी ओर, श्रीबाबू मानते थे कि जेपी का सर्वोदय आंदोलन “राजनीतिक नादानी” है जो शासन की स्थिरता को कमजोर करेगा. यह वैचारिक टकराव आगे चलकर बिहार की राजनीति में स्थायी विभाजन बन गया—सत्ता और समाज के बीच की दूरी बढ़ने लगी.
पत्रों से उभरा एक युग का अंत
जेपी ने इस संवाद के बाद धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली. उन्होंने खुद को समाज सुधार और सर्वोदय आंदोलन में झोंक दिया. दूसरी तरफ, श्रीकृष्ण सिंह ने सत्ता की जिम्मेदारी निभाई, लेकिन वे भी इस विवाद के बोझ से मुक्त नहीं हो पाए. 1957 का यह पत्राचार इतिहास में “आदर्शों और सत्ता के संघर्ष का दस्तावेज” बनकर रह गया. इसमें सिर्फ दो नेताओं की नाराज़गी नहीं थी, बल्कि आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति के नैतिक पतन की आहट भी थी.
जेपी ने अपने अंतिम दिनों में कहा था— “मैंने सत्ता नहीं, समाज को बदलने की कोशिश की थी.” और शायदश्रीकृष्ण सिन्हा के जवाब में यही मौन प्रतिध्वनि थी कि— “समाज को बदलने के लिए सत्ता में रहना भी जरूरी है.”
इन दो वाक्यों के बीच जो खाई थी, वही बिहार की राजनीति का स्थायी चरित्र बन गई—जहां आदर्श और व्यवहार हमेशा आमने-सामने रहे.

पत्रव्यवहार से झलकता है बिहार की राजनीति का स्वरूप
यह पत्र व्यवहार जातिवाद, राजनीतिक स्वार्थ, नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा, दलों की आंतरिक कलह और बिहार की सामाजिक-राजनीतिक विसंगतियों की कहानी बताता है. इसी कारण दोनों नेताओं के बीच सुरुचिपूर्ण संवाद हुआ लेकिन साथ ही कड़वे शब्दों की भी भरमार थी.
श्रीकृष्ण सिन्हा को ‘बिहार केसरी’ के नाम से जाना जाता है. एक जोरदार प्रशासक और राजनीति के अनुभवी नेता, जिन्होंने बिहार की सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना किया. वहीं, जयप्रकाश नारायण को ‘लोकनायक’ कहा जाता है. जनतंत्र और सामाजिक न्याय के प्रबल समर्थक.
इन दो महान विभूतियों के संवाद से हमें यह समझने का मौका मिलता है कि भारत के लोकतंत्र और राजनीति की बुनियाद कितनी जटिल है. दोनों ने अपने-अपने तरीके से बिहार की स्थिति सुधारने का प्रयास किया, लेकिन स्वार्थ और सामाजिक ताने-बाने ने कई बार उनके प्रयासों को विफल कर दिया.
संदर्भ
श्रीकांत, संकलन और संपादन, चिट्ठियों की राजनीति, वाणी प्रकाशन

