Bihar News: बिहार के बांका जिले के कटोरिया-बांका रोड पर एक बस्ती है- महोलिया. पहली नजर में ये गांव किसी आम बस्ती जैसा लगता है, लेकिन जैसे ही आप वहां पहुंचेंगे, आपको कुछ अजीब सा लगेगा. गांव में बच्चे और महिलाएं तो मिल जाएंगी, मगर पुरुषों की मौजूदगी लगभग शून्य है. वजह जानेंगे तो आप हैरान रह जाएंगे इस गांव के लगभग सभी पुरुष कोलकाता में रहकर ‘महाराज’ बन चुके हैं.
45 घरों के लगभग 100 पुरुष कोलकता में दिखा रहे जलवा
महोलिया गांव के करीब 45 घरों के लगभग 100 पुरुष सदस्य सालों से कोलकाता की रसोइयों में अपने हुनर का जलवा दिखा रहे हैं. वहां की शहरी आबादी में ‘महोलिया महाराज’ एक ब्रांड बन चुका है. किसी भी बंगाली भोज-भंडारे या पारंपरिक कार्यक्रम की रसोई इन महाराजों के बिना अधूरी मानी जाती है. इतना ही नहीं, इन कारीगरों ने अब अपने नाम में बाकायदा ‘महराज’ उपनाम भी जोड़ लिया है. जैसे घनश्याम महराज, सुखदेव महराज और माधो महराज.
इन महाराजों की कहानी संघर्ष और हुनर की मिसाल है. शुरू में गांव के दो-चार लोगों ने कोलकाता का रुख किया था. फिर धीरे-धीरे पूरा गांव इस रोजगार में जुड़ता चला गया. जिनके पास खेती-बाड़ी या रोजगार का कोई साधन नहीं था, उन्होंने रसोई को ही रोजी-रोटी का जरिया बना लिया.
कोलकता में कई महाराजों ने खरीदा घर
कोलकाता में कई महाराजों ने अब अपना घर तक खरीद लिया है. वे वहीं रहकर, ऑर्डर के अनुसार विभिन्न मोहल्लों में जाकर पकवान बनाते हैं. रोजाना 10 से 20 हजार रुपए तक की आमदनी होती है. रहने और खाने की चिंता नहीं रहती, क्योंकि सारा काम रसोई के इर्द-गिर्द ही चलता है. अनुभव के साथ इनकी मजदूरी भी बढ़ती जाती है.
गांव में बुजुर्ग और महिलाएं संभालती हैं घर
रसोई बनाना उनकी जातिगत परंपरा नहीं थी, मगर जब इस काम से जीवन चलने लगा तो उन्होंने इसे गर्व से अपनाया. आज महोलिया गांव के पुरुष कोलकाता में रहते हैं, मगर उनका दिल और परिवार गांव में ही बसता है. गांव में बुजुर्ग और महिलाएं संभालती हैं घर की ज़िम्मेदारी, जबकि कोलकाता की रसोइयों में ‘महोलिया महराज’ अपनी कला का लोहा मनवा रहे हैं. महोलिया की यह कहानी बताती है कि मेहनत, एकता और हुनर के बल पर कैसे कोई भी गांव आत्मनिर्भर और प्रेरणास्रोत बन सकता है.
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