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Bihar Election: बिहार में मायावती, केजरीवाल या प्रशांत किशोर, किसके मॉडल को मिलेगा जनादेश

Bihar Election: बिहार की राजनीति पिछले पांच दशकों से दो गठबंधनों के बीच सिमट कर रह गयी है. यहां जातीय समीकरण, सामाजिक ताने-बाने और राष्ट्रीय मुद्दों का मिला-जुला असर चुनावी नतीजों को तय करता है.

Bihar Election: पटना. 2025 के विधानसभा चुनाव को लेकर अब तक तस्वीर साफ थी. एक ओर महागठबंधन (राजद-कांग्रेस), दूसरी ओर एनडीए (भाजपा-जदयू). इस विधानसभा चुनाव में तीन नेताओं बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती, आम आदमी पार्टी (आप) प्रमुख अरविंद केजरीवाल और जन सुराज अभियान के संस्थापक प्रशांत किशोर के मैदान में उतरने से समीकरण में बदलाव की आहट महसूस की जा सकती है. तीनों नेताओं के तीन मॉडल है जिसकी परीक्षा बिहार विधानसभा चुनाव में होनी है. तीनों ने बिहार की 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर दिया है. यह घोषणा जितनी साहसिक है उतनी ही बिहार की पारंपरिक राजनीति के लिए चुनौती भी.

मायावती का दलित कार्ड

मायावती लंबे समय से उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रही हैं लेकिन बिहार में उनकी उपस्थिति हर विधानसभा चुनाव में दर्ज होती रही है. वर्ष 2005 और 2010 में बसपा ने कुछ सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे लेकिन वोट शेयर दो प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाया. 2025 में मायावती ने यह दावा किया है कि “दलित, पिछड़े और वंचित वर्ग की असली लड़ाई बसपा ही लड़ेगी. बिहार में दलितों की आबादी करीब 16 प्रतिशत है. जिनमें मुसहर, पासी, चमार और दुसाध जैसी जातियां शामिल हैं. परंपरागत रूप से इन वर्गों का झुकाव राजद और कांग्रेस की ओर रहा है. यदि बसपा इनमें से सिर्फ पांच-सात प्रतिशत वोट भी अपने पाले में खींच लेती है तो यह दर्जनों सीटों पर महागठबंधन को सीधा नुकसान पहुंचा सकती है.

केजरीवाल का दिल्ली-पंजाब मॉडल

अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पहली बार बिहार में बड़े पैमाने पर उतर रही है. दिल्ली और पंजाब में सरकार चलाने का अनुभव और शिक्षा-स्वास्थ्य पर उनकी नीतियां अब वे बिहार के सामने रख रहे हैं. केजरीवाल का निशाना साफ है. शहरी मतदाता, नौकरीपेशा वर्ग और युवा. बिहार में पटना, गया, भागलपुर, दरभंगा, मुजफ्फरपुर जैसे शहरों में आप को अच्छा रिस्पॉन्स मिल सकता है. उनका मानना है कि बिहार की राजनीति अब जाति और भ्रष्टाचार से आगे बढ़नी चाहिए. हम स्कूल, अस्पताल और रोजगार की गारंटी देंगे. दिल्ली का मॉडल बिहार में भी लागू करेंगे. हालांकि चुनौती यह है कि आप के पास बिहार में जमीनी संगठन नहीं है.

प्रशांत किशोर की जमीनी तैयारी

प्रशांत किशोर (पीके) की राजनीतिक एंट्री सबसे दिलचस्प है. चुनावी रणनीतिकार से नेता बनने की उनकी यात्रा अनोखी रही है. उन्होंने 2022 से ‘जन सुराज पदयात्रा’ शुरू की थी जिसके जरिए वे हजारों गांवों में पहुंचे. पीके का कहना है कि वे सत्ता पाने के लिए नहीं, बल्कि बिहार बदलने के लिए राजनीति में आये हैं. जनता अब पारंपरिक नेताओं से ऊब चुकी है. उनका फोकस ग्रामीण क्षेत्र, युवा और महिलाएं हैं. वे जातीय राजनीति से ऊपर उठकर विकास और सुशासन की बात करते हैं. सवाल यह है कि क्या उनकी मेहनत वोट में तब्दील होगी? 2015 और 2020 के चुनावों ने दिखाया कि बिहार में जमीनी संगठन और जातीय समीकरण सबसे बड़ी कुंजी हैं.

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