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कहानी रोशनी की और नौ लाख अति कुपोषित बच्चों के जीवन का सच

वैसे तो यह पूर्णिया जिले के सुदूरवर्ती गांव चंदरही की एक बच्ची और उसके परिवार की कथा है, मगर इस कथा में झांकेंगे तो बिहार के नौ लाख गंभीर रूप से अतिकुपोषित बच्चों के पारिवारिक जीवन की झलक मिलेगी. यहां एक मां है, जिसकी 12 साल की उम्र में शादी हो गयी. परिवार नियोजन के […]

वैसे तो यह पूर्णिया जिले के सुदूरवर्ती गांव चंदरही की एक बच्ची और उसके परिवार की कथा है, मगर इस कथा में झांकेंगे तो बिहार के नौ लाख गंभीर रूप से अतिकुपोषित बच्चों के पारिवारिक जीवन की झलक मिलेगी. यहां एक मां है, जिसकी 12 साल की उम्र में शादी हो गयी. परिवार नियोजन के उपायों का पता नहीं था, सो 11 बच्चे हो गये. उनमें से पांच बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में असमय साथ छोड़ गये. गरीबी की वजह से बच्चों को ढंग का भोजन नहीं मिला. जमीन नहीं थी, सो बच्चे खुले में शौच करते रहे और डायरिया का शिकार होते रहे.
पुष्यमित्र
pushyamitra@prabhatkhabar.in
धमदाहा (पूर्णिया) : रोशनी कुमारी इन दिनों पूर्णिया जिले के धमदाहा अनुमंडल में स्थित पोषण पुनर्वास केंद्र में भरती है. दो साल की रोशनी कुमारी या तो अपने बिस्तर पर सोयी रहती है या अपनी मां गुचकी देवी की गोद में रहती है.
जमीन पर खड़ी नहीं हो पाती, पलकें अक्सर मूंदी रहती है और बोलती है तो ठीक से आवाज भी नहीं निकलती. देखने से मालूम होता है कि जैसे वह आठ-दस महीने की कोई बच्ची हो. रोशनी कुमार बिहार राज्य के उन नौ लाख अभागे बच्चों में से है, जिन्हें मेडिकल की भाषा में सैम या सिवियर एक्यूट मॉलन्यूट्रिश कहा जाता है. इस स्थिति में अगर बच्चा ज्यादा दिन तक रहे तो या तो वह विकलांग हो सकता है या उसकी मृत्यु हो सकती है.
हालांकि उसका सौभाग्य यह है कि उसके गांव चंदरही की आशा कार्यकर्ता ने उसकी इस बीमारी को पहचान लिया और उसे इस पोषण पुनर्वास केंद्र में भरती करा दिया जहां उसका इलाज हो रहा है. वरना ज्यादातर बच्चों के मां-बाप इतने गरीब और काम जागरूक होते हैं कि एक तो उन्हें अपने बच्चे की सही हालत का पता तक नहीं होता और होता भी है तो उन्हें समझ नहीं आता कि वे उनका इलाज कहां और कैसे करायें.
हालांकि रोशनी कुमारी महज दो साल की है, मगर उसकी छोटी सी पिछली जिंदगी में झांकें तो हम समझ सकते हैं कि आखिर क्यों यह बच्चे इस खतरनाक स्थिति तक पहुंच गयी. रोशनी अपनी मां गुचकी देवी की दसवीं संतान है, और उससे छोटा उसका एक भाई भी है जो महज चार महीने का है. हालांकि उसके ग्यारहों भाई-बहन अभी जिंदा नहीं हैं, इनमें से पांच की मृत्यु हो गयी. रोशनी की इस कहानी को सुनकर नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4(एनएफएचएस-4) का वह आंकड़ा याद आ जाता है, जिसके मुताबिक राज्य में हर हजार में से 58 बच्चे पांच साल से कम उम्र में अकाल कलवित हो जाते हैं. हालांकि रोशनी के यहां मरने वाले बच्चों का प्रतिशत काफी अधिक है. आप हर दो में एक भी कह सकते हैं.
उसका सबसे बड़ा भाई दीपक जो 15-16 साल का है फिलहाल पंजाब में मजदूरी कर रहा है और उसकी एक बहन जो दीपक से साल भर छोटी है, उसकी शादी हो चुकी है. उसके छह जिंदा भाई-बहनों में से तीन तो छोटे हैं, मगर जो तीन बड़े हैं उन्होंने भी कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा. यानी अशिक्षा, बाल विवाह और बाल मजदूरी सारे किस्से एक साथ. एनएफएचएस-4 के मुताबिक आज भी बिहार में 43 फीसदी बच्चियां ऐसी हैं, जो छह साल से अधिक उम्र की हैं मगर स्कूल नहीं गयी.
बाल विवाह की शिकार तो उनकी मां गुचकी देवी भी हुईं, जो अभी खुद को 32 साल की बताती हैं. उनकी शादी महज 12 साल की उम्र में हो गयी थी. और यह कोई नयी बात नहीं है, क्योंकि बिहार के गांवों में आज भी 41 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में हो जाती हैं और वे गर्भवती भी हो जाती हैं. 16 साल की उम्र में वह पहली दफा मां बनीं और तब से लगभग हर साल-दो साल पर वह गर्भवती होती हैं और प्रसव पीड़ा सहती हैं.
बंध्याकरण का ऑपरेशन क्यों नहीं कराया या गर्भनिरोधक उपाय क्यों नहीं अपनाती? यह पूछने पर गुचकी कहती हैं कि उन्हें पता ही नहीं उपाय क्या हैं और आपरेशन कहां और कैसे होता है. गुचकी देवी की ही बात क्यों बिहार में तीन चौथाई महिलाएं आज की तारीख में परिवार नियोजन के उपायों को नहीं अपनातीं.
वे बताती हैं कि ग्यारह बार गर्भवती रहने के दौरान एक बार भी उन्होंने कभी आयरन की गोलियों का सेवन नहीं किया और कोई डॉक्टरी जांच नहीं करायी. उसके ये सारे प्रसव घर पर ही हुए और अप्रशिक्षित दाईयों के सहारे. गुचकी देवी बिहार की उन 36 फीसदी महिलाओं में से एक हैं जिन्होंने कभी किसी अस्पताल में प्रसव नहीं कराया. यहां प्रशिक्षित दाइयों की सेवा लेने वाली महिलाओं की संख्या भी 8 फीसदी ही है. 34 फीसदी महिलाएं ही गर्भाधान के बाद डॉक्टरी सलाह ले पाती हैं और सिर्फ 9.7 फीसदी महिलाएं ही गर्भावस्था के दौरान आयरन टेबलेट लिया करती हैं.
यही कहानी रोशनी के जन्म के वक्त भी हुई. उसका जन्म घर में ही एक अप्रशिक्षित दाई के हाथों हुआ. जन्म से पहले उसकी मां ने आयरन टेबलेट नहीं खाया या जन्म के बाद उसे पहले घंटे में अपना दूध भी नहीं पिलाया. हालांकि कुछ चीजें उसके साथ अच्छी हुईं कि उसे छह महीने तक मां का दूध मिला. आशा कार्यकर्ता की सजगता की वजह से उसका टीकाकरण भी हुआ. मगर जबसे उसने भोजन लेना शुरू किया, उसे कभी ढंग का खाना नहीं मिला. और उसे संपूर्ण पोषक आहार की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि बिहार में संपूर्ण पोषक आहार सिर्फ 9.2 फीसदी बच्चों को उपलब्ध है.
इसकी वजह बताते हुए रोशनी की मां गुचकी देवी कहती हैं, क्या करें, दोनों आदमी(पति चंद्रकिशोर ऋषिदेव और वह) अनपढ़ हैं. कोई और काम नहीं कर सकते इसलिए मजदूरी करते हैं तब जाकर किसी तरह घर चलता है.
उसमें भी किसी दिन खाने का इंतजाम होता है तो किसी दिन भूखे रहना पड़ता है. दोनों आदमी मिलकर मजदूरी करते हैं फिर महीने में छह-सात सौ रुपये से अधिक की आमदनी नहीं होती. दोनों खुद शारीरिक रूप से इतने कमजोर हैं कि ठीक से मेहनत मजदूरी नहीं कर पाते.
रोशनी पिछले साल पांच दफा बीमार पड़ी. डायरिया वगैरह की भी शिकार हुई. हर बार उसके माता-पिता उसे गांव के एक स्थानीय आरएमपी टाइप डॉक्टर के पास ले गये और इलाज कराया. हालांकि उनके दूसरे बच्चे भी बीमार पड़ते रहते हैं. और पति-पत्नी भी. ऐसे में गांव के डॉक्टर से दिखाने के बावजूद उनका इलाज का खर्चा काफी अधिक हो जाता है और वे इस वजह से कर्जदार भी हो जाते हैं. इसलिए छोटी-मोटी बीमारियों को वे हर संभव टालने की कोशिश करते हैं. जब हालत बहुत खराब हो जाती है, तभी डॉक्टर के पास जाते हैं. सरकारी अस्पताल क्यों नहीं जाते? यह पूछने पर गुचकी देवी कहती हैं, एक तो अस्पताल दूर है, फिर वहां ठीक से इलाज नहीं होता.
रोशनी का पूरा परिवार फूस की एक झोपड़ी में किसी तरह रहता है. वहां उसके पास न शौचालय है और न ही पेयजल का अपना साधन. खाना बनाने के बाद बेकार पानी भी वे खुले में ही बहाते हैं. जमीन इतनी कम है कि वहां साफ-सफाई के बारे में, शौचालय या सोख्ता बनाने के बारे में वे सोच भी नहीं सकते. और यह स्थिति सिर्फ रोशनी की नहीं है, बिहार के तीन चौथाई घरों की है, जहां शौचालय और स्वच्छता के समुचित इंतजाम नहीं हैं.
परिवार नियोजन के साधनों का पता नहीं
बालविवाह की शिकार अनपढ़ मां जिसने ग्यारह बच्चों को जन्म दिया, जिसे परिवार नियोजन के साधनों का पता नहीं है, जो खुद एनीमिक है, वहां दुर्भाग्य से रोशनी का जन्म होता है. घर की आमदनी बहुत कम है, लिहाजा पोषक आहार से वह वंचित हो जाती है.
साफ-सफाई के अभाव में वह अक्सर बीमार पड़ती है. भाई-बहनों की संख्या इतनी अधिक है कि उस पर अलग से ध्यान देना उसके माता-पिता के लिए मुमकिन नहीं हैं. टीकाकरण तो होता है, मगर बीमार पड़ने पर बेहतर इलाज नहीं हो पाता और वह उन नौ लाख बच्चों की जमात में शामिल हो जाती है, जिन्हें गंभीर रूप से अतिकुपोषित कहा जाता है. यह अकेली रोशनी की कहानी नहीं है, काश यह अकेली रोशनी की ही कहानी होती.

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