सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
लोकतंत्र की मजबूती के लिए कांग्रेस यानी मुख्य प्रतिपक्षी दल का पुनरुद्धार जरूरी है. पर, उसके पुनरुद्धार के लिए यह आवश्यक है कि कांग्रेस अपनी चुनावी दुर्दशा का असली कारण समझे. उसे स्वीकार करे और तत्संबंधी सुधार का प्रयास भी करे. एक जिम्मेदार प्रतिपक्ष बने. नब्बे के दशक में मधु लिमये ने भी कहा था कि देश को चलाने के लिए कांग्रेस में सुधार जरूरी है, क्योंकि कांग्रेस ही देशव्यापी पार्टी है.
खैर, अभी तो देश को चलाने का भार जनता राजग व नरेंद्र मोदी को सौंप कर निश्चिंत हो गयी है. पर, एक जिम्मेदार प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने के लिए भी यह जरूरी है कि कांग्रेस आत्म चिंतन करे. खुद को मजबूत बनाने का वह वास्तविक प्रयास करे. सिर्फ इस बात की प्रतीक्षा न करे कि मोदी सरकार की छवि जब धूमिल होगी तो जनता खुद ही कांग्रेस को एक बार फिर सत्ता में पहुंचा देगी.
ऐसे में कांग्रेस को धोखा भी हो सकता है. क्योंकि, मोदी सरकार की कार्यशैली कुछ अलग ढंग की है. इसलिए कांग्रेस खुद भी कुछ खास उपाय करे. इसके लिए यह जरूरी है कि वह चेहरे के बदले आईना साफ करने में समय बर्बाद न करे. मर्ज सिर में है तो सिर के बदले पैर के इलाज में अपना समय नष्ट न करे. राहुल गांधी ने अपने इस्तीफे में जो बातें लिखी हैं, वे सब ‘राजनीतिक’ बातें ही लगती हैं. राजनीतिक हलकों में यही माना जा रहा है. कांग्रेस की विफलता के असली कारण 2014 में ही एके एंटोनी समिति ने बता दिये थे.
एंटोनी की वह बात आज भी लागू है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद पूर्व रक्षा मंत्री एंटोनी से कांग्रेस हाइकमान ने कहा था कि वह हार के कारणों का पता लगाएं. एंटोनी ने अपनी रपट में साफ-साफ कह दिया था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में हमारी हार इसलिए हुई क्योंकि लोगों में यह धारणा बनी कि कांग्रेस धार्मिक अल्पसंख्यकों के पक्ष में पूर्वाग्रहग्रस्त है. इसलिए बहुमत मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर हुआ. एंटोनी के अनुसार भ्रष्टाचार, मुद्रास्फीति और दल में अनुशासनहीनता हार के अन्य कारण थे.
पर, 2014 के बाद कांग्रेस ने एंटोनी समिति की रपट पर कोई ध्यान ही नहीं दिया. बल्कि उसी गलत दिशा में कांग्रेस आगे बढ़ती चली गयी. नतीजा सामने है. राहुल गांधी को धन्यवाद! इस देश में पदलोलुप नेताओं की अपार भीड़ है.
वैसे में राहुल गांधी धन्यवाद के पात्र हैं. पद पर बने रहने के तमाम आग्रहों के बावजूद उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष जैसा महत्वपूर्ण पद अंततः छोड़ ही दिया.
कैसे बंद हो गवाहों पर दबाव : आदतन अपराधी खास कर बड़े अपराधी यानी राजनीतिक संरक्षण प्राप्त माफिया अक्सर अपने खिलाफ जारी मुकदमों के गवाहों को पटा लेते हैं या डरा-धमका कर गवाही बदलवा देते हैं. इस तरह वे सजा से बच जाते हैं. फिर वे अगले अपराध कार्य में लग जाते हैं.
हिंदी प्रदेशों में अपराध बढ़ने का यह एक बड़ा कारण है. कई बार तो ऐसा होता है कि एक ही अपराधी अनेक मामलों में बारी-बारी से गवाहों को डरा-धमका कर सजा से बच जाते हैं. गवाह के पलट जाने के कारण कोई आरोपित यदि लगातार दो से अधिक बार सजा से बच जाता है, तो तीसरी बार उसके मामले में एक खास उपाय किया जाना चाहिए.
उसके खिलाफ गवाह की गवाही पुलिस के साथ-साथ न्यायिक दंडाधिकारी के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-164 के तहत भी दिलवा दी जानी चाहिए. वैसी स्थिति में पलटी मारने पर गवाह पर मुकदमा भी हो सकता है. उससे गवाह डरेंगे. अपनी गवाही जल्दी नहीं बदलेंगे. यदि आरोपित कोई बड़ा अपराधी हो तो गवाह को सुरक्षा देने का पुख्ता प्रबंध भी शासन करे. सुप्रीम कोर्ट सुरक्षा का आदेश कई बार दे चुका है. साथ ही ऐसे मामलों की सुनवाई जल्द से जल्द पूरी हो. ऐसे उपाय करने से अपराध घटेंगे.
भूली-बिसरी याद : कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष दामोदरन संजीवैया ने इंदौर में 1963 में कहा था कि ‘वे कांग्रेसी जो 1947 में भिखारी थे, वे आज करोड़पति बन बैठे.’
गुस्से में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने यह भी कहा था कि ‘झोपड़ियों का स्थान शाही महलों ने और कैदखानों का स्थान कारखानों ने ले लिया है.’ ऐसे बयान के कारण संजीवैया के बारे में जानने की इच्छा हुई. संजीवैया के बारे में हाल में पढ़ रहा था. यह जानकर दुःखद आश्चर्य हुआ कि सिर्फ 51 साल की आयु में ही 1972 में उनका निधन हो गया था.
पर, उससे पहले वे अपनी प्रतिभा और नेकनीयती के बल पर बड़े-बड़े पदों पर रहे. पेशे से वकील संजीवैया अनुसूचित जाति से आते थे. वे 1950 में अस्थायी संसद के सदस्य बनाये गये थे. 1952 में मद्रास मंत्रिमंडल के सदस्य बने. वहां बाद के मंत्रिमंडलों में भी रहे. राज्य के विभाजन के बाद वे आंध्र के मुख्यमंत्री भी बने.
दलित समुदाय से आने वाले किसी राज्य के वे पहले मुख्यमंत्री थे. संजीवैया कांग्रेस अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्रिमंडल के भी सदस्य रहे. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में वे पार्टी में नयी जान फूंकना चाहते थे. पर इस बीच उनका निधन हो गया.
और अंत में : बिहार विधानमंडल के प्रतिपक्षी दलों के विधायकों ने विरोधस्वरूप आम और आम के पौधे लेने से मना कर दिया. राज्य सरकार उन्हें उपहारस्वरूप दे रही थी. आम लौटाकर तो अच्छा किया. पर, आम के पौधे ले लिए होते तो यह माना जाता कि हमारे विधायकगण पर्यावरण संरक्षण की भी चिंता करते हैं.