साकिब, पटना : एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एइएस) या चमकी बुखार ने बिहार में कोहराम मचा रखा है. इससे बच्चों की हो रही मौत के बाद सारे देश में चर्चा इस बात की है कि आखिर इस बीमारी का कारण क्या है? पिछले कुछ दिनों से कहा जा रहा है कि लीची के कारण यह बीमारी फैल रही है. लीची को लेकर यह धारणा सीएमसी, वेल्लोर के रिटायर्ड प्रो. डाॅ टी जैकब जॉन का रिसर्च सामने आने के बाद मजबूत हुई है.
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चमकी बुखार का कारण लीची नहीं, बल्कि कुपोषण
साकिब, पटना : एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एइएस) या चमकी बुखार ने बिहार में कोहराम मचा रखा है. इससे बच्चों की हो रही मौत के बाद सारे देश में चर्चा इस बात की है कि आखिर इस बीमारी का कारण क्या है? पिछले कुछ दिनों से कहा जा रहा है कि लीची के कारण यह बीमारी […]
लेकिन अपने रिसर्च में डॉ जैकब कहते हैं कि लीची का एइएस से संबंध तो है, लेकिन लीची इसका प्रमुख कारण नहीं है. वह भी मानते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण कुपोषण है. साल 2014 में एक रिसर्च पेपर ‘एपिडेमियोलॉजी ऑफ एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम इन इंडिया: चेंजिंग पैराडाइम एंड इंप्लिकेशन फॉर कंट्रोल’ में भी बिहार के मुजफ्फरपुर और वियतनाम के बाक गियांग प्रांत के मामलों में समानता दिखायी गयी थी. दोनों ही जगहों पर पड़ोस में ही लीची के बाग थे.
इस बीमारी और लीची से इसके रिश्ते पर डॉ टी जैकब जॉन के साथ रिसर्च करने वाले मुजफ्फरपुर के प्रसिद्ध शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ अरुण साह से जब हमने बात की तो उनका कहना था कि लीची से बड़ा कारण कुपोषण है. लीची तोड़ने के दौरान अनेक मजदूर खेतों में समय बिताते हैं. उनके साथ उनके बच्चे भी होते हैं.
लीची बागान के आस-पास रहने वाले बच्चे जाने-अनजाने जमीन पर गिरी हुई कच्ची लीची को पेट भरने के लिए खूब खाते हैं. ये वैसे बच्चे होते हैं, जिनमें पहले से ही कुपोषण के कारण ग्लूकोज का रिजर्व कम होता है. और जब ये रात में बिना खाना खाये ही सो जाते हैं तो ग्लूकोज का लेवल और भी कम हो जाता है.
साथ ही अधपकी या कच्ची लीची खाने के कारण एक खास तरह का टॉक्सिन इनके शरीर में चला जाता है. अब रात में यह टॉक्सिन उनके शरीर में ब्लड शुगर लेवल को कम कर देता है, जिसे हाइपोग्लाइसीमिया कहते हैं. अक्सर सुबह चार से पांच बजे के बीच अभिभावक पाते हैं कि बच्चा बेहोश है या उसे ‘चमकी’ आ रही है.
डॉ अरुण शाह कहते हैं कि इसमें सिर्फ गरीब, ग्रामीण या कुपोषित बच्चे पीड़ित होते हैं. आज तक मैंने शहरी इलाके में रहने वाले किसी बच्चेे में इस बीमारी को नहीं पाया, जबकि शहरी इलाके के बच्चे भी लीची खाते हैं. 2014 में हमने जब इस पर रिसर्च करनी शुरू किया तो पाया कि यह संक्रामक बीमारी नहीं है. हमें लीची खासतौर से कच्ची या अधपकी लीची में ऐसा टॉक्सिन मिला, जो कुपोषित बच्चों पर ही असर करता है. इस बात को अमेरिकी विशेषज्ञों ने भी माना है.
उन्होंने बताया कि अपने रिसर्च के आधार पर मैं यही कहूंगा कि लीची गुनाहगार नहीं है. असली गुनाहगार तो कुपोषण है. हमलोगों ने बिहार सरकार को सलाह भी दी थी कि लोगों को जागरूक किया जाये. हमारी सलाह पर सरकार जागरूकता अभियान चला भी रही थी. इसके कारण 2014 के बाद मौतों में काफी गिरावट आयी थी. लेकिन इस वर्ष चुनाव के कारण अभियान सही से चल नहीं पाया, जिसका नतीजा सामने है.
इसके कारणों को जानने के लिए हमने मुजफ्फरपुर स्थित लीची अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉ विशाल नाथ से संपर्क किया. उन्होंने बताया कि लीची और दिमागी बुखार या चमकी बुखार के बीच कोई संबंध अब तक साबित नहीं हुआ है. यह महज संयोग है कि लीची बदनाम हो रही है. कच्ची लीची तो इतनी खट्टी हाेती है कि कोई उसे खा ही नहीं सकता. लीची पौष्टिक गुणों से युक्त फल है. लीची में कई विटामिन और खनिज तत्व होते हैं.
एनएमसीएच, पटना में कार्यरत शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ अनिल कुमार तिवारी कहते हैं कि इसका स्पष्ट कारण बताना मुश्किल है. लीची को इसका कारण बताना गलत है. प्रमुख कारण लीची नहीं, बल्कि कुपोषण है. जरूरत है कि इसको लेकर बिहार में और बेहतर रिसर्च हो.
दुख की बात है कि यहां रिसर्च को लेकर कोई आधारभूत संरचना ही नहीं है. वहीं, पीएमसीएच के मेडिसिन विभाग में कार्यरत डॉ समरेंद्र झा कहते हैं कि बढ़ती गर्मी और कुपोषण चमकी बुखार के प्रमुख कारण हैं. कुपोषण के कारण ऐसे बच्चों में रोग से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है. बच्चों के कुपोषण पर ध्यान दिया जाये, तो इस पर नियंत्रण संभव है.
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