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जॉर्ज फर्नांडिस यानी एक अद्वितीय क्रांतिकारी

डॉ शंभुशरण श्रीवास्तव जॉर्ज फर्नांडिस आज नहीं रहे. उन्हाेंने भारत के राजनीतिक जीवन पर अमिट छाप छोड़ी है. उनके साथ वर्षों तक पार्टी सहयोगी के रूप में नजदीक से समय बिताने का मौका मिला. उस आधार पर मैं कह सकता हूं कि जाॅर्ज अपनी तरह के एक से ही थे. लोकतंत्र, मानव अधिकार, बागी की […]

डॉ शंभुशरण श्रीवास्तव
जॉर्ज फर्नांडिस आज नहीं रहे. उन्हाेंने भारत के राजनीतिक जीवन पर अमिट छाप छोड़ी है. उनके साथ वर्षों तक पार्टी सहयोगी के रूप में नजदीक से समय बिताने का मौका मिला. उस आधार पर मैं कह सकता हूं कि जाॅर्ज अपनी तरह के एक से ही थे.
लोकतंत्र, मानव अधिकार, बागी की स्वतंत्रता, तानाशाही का विरोध तथा दबे हुए मुल्कों की आजादी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता संपूर्ण थी. सत्ता में रहते हुए भी उन्होंने इन सवालों पर कोई समझौता नहीं किया. आज जब जॉर्ज नहीं है तो यादों का लंबा सिलसिला दिमाग में घूम रहा है. मैं 1994 में जनता दल (जॉर्ज) के गठन के समय उनके नजदीकी संपर्क में आया. जनता दल (जॉर्ज) ही जनता पार्टी बना और फिर जनता दल(यू.).
जॉर्ज की क्रांतिकारिता में गांधी का जबरदस्त प्रभाव था. सादगी भरा जीवन एवं अकेले आदर्शों को समाहित किया. अपने कपड़े खुद धोना, मंत्री रहते हुए भी पुरानी फियेट कार में चलना, कभी बड़े होटल में खाना खाने नहीं जाना.
मंत्री रहते हुए भी सुरक्षा प्रहरी नहीं रखना. उनके व्यक्तित्व के विस्तार भर थे. उनके दिल्ली आवास में कोई भी कभी भी अंदर जा सकता था. किसी किस्म का बंधन नहीं. उनके आउट हाउस में तिब्बत आैर बर्मा के क्रांतिकारी रहते थे.
बर्मा के लोकतंत्र के प्रहरियों के लिए तो उनका घर अपने घर की तरह था. समता पार्टी के गठन के समय जॉर्ज साहब लाल चंद महतो विधायक के आवास पर रहते थे और वह एमएलए फ्लैट तब बिहार में राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र होता था. जॉर्ज साहब एक नान एसी एंबेसडर कार में पूरे बिहार में घूमते रहते थे.
थकने का नाम नहीं. मैं तब बिहार में पार्टी का प्रवक्ता था. एक बार चार दिनों के दौरे के बाद वापस आये तो मुझे फोन किया कि ठीक से खाने का समय नहीं मिला. भूख लगी है. खाना शुरू करते ही उन्होंने मुझसे पूछा कि बिहार के नौजवानों में अपनी स्थिति पर गुस्सा क्यों नहीं दिख रहा है.
मैने कहा कि प्रयोगों की असफलता ने उन्हें निराश किया है. बाद में मैंने देखा कि वे हर सभा में नौजवानों को ललकारते थे. गुस्सा करो, गुस्सा करो, गुस्सा करो.
जॉर्ज सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय नेता थे. हिंदी, मराठी, कन्नड़, मलयालम आदि पर उनकी गहरी पकड़ थी. सामान्य तरीके से तो वह लगभग हर भाषा का ज्ञान रखते थे. इससे जनता से जुड़ने में उन्हें आसानी होती थी. पूर्वोत्तर भारत से उनका गहरा लगाव था. आज के माहौल में यह आश्चर्यजनक लग सकता है कि उन्हें किसी ने ईसाई के रूप में नहीं देखा, हमेशा एक राष्ट्रीय एवं समाजवादी रूप में ही देखा.
जॉर्ज जन्मजात क्रांतिकारी थे. बचपन में ईसाई धर्मगुरु बनने के लिए उन्हें ईसाई सेमिनरी में भेजा गया. वहां की बातों के खिलाफ बोलने की वजह से उन्हें निकाल दिया गया और वे समाजवादी बन गये. मुंबई जाने के बाद वहां रात में सड़कों के किनारे सोये पर संघर्ष करते हुए
बड़े ट्रेड यूनियन नेता और समाजवादी नेता के तौर पर उभरे. गंठबंधन चलाने और बनाये रखने में उनको हमेशा याद किया जायेगा.
जॉर्ज की वजह से ही अटल जी की सरकार छह साल तक गंठबंधन होने के बावजूद आराम से चलती रही. 1998 में अटल जी की सरकार पर पहला खतरा छह महीने के अंदर ही आ गया और लगा कि अटल जी 15 अगस्त को काम चलाऊ सरकार के प्रधानमंत्री के तौर पर झंडा फहरायेंगे. जय ललिता ने समर्थन वापस लेने की धमकी दी थी. पर जॉर्ज साहेब तत्काल चेन्नई गये और 14 की रात में वापस आ कर हम लाेगों को बताया कि खतरा टल गया है. ऐसे बहुत मौके आये.

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