gopalganj news : मांझा. धान कटाई और दौनी का काम इन दिनों पूरे जोर पर है. इसी बीच मांझा प्रखंड के कई गांवों में किसानों ने प्रशासनिक रोक-टोक के बावजूद पराली जलाना फिर शुरू कर दिया है. खेतों के चारों ओर उठता धुआं, हवा में तैरती राख और लगातार बिगड़ती वायु गुणवत्ता चिंता का विषय बन चुकी है. सरकार हर वर्ष इसकी रोकथाम के लिए अभियान चलाती है, मशीनरी उपलब्ध कराने का दावा किया जाता है, परंतु धरातल पर स्थितियां बिल्कुल उलट दिखती हैं. किसानों द्वारा पराली जलाने की परंपरा आज भी बिना झिझक जारी है.
मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर गंभीर असर
कृषि विशेषज्ञों के अनुसार पराली जलाने से मिट्टी में मौजूद कई आवश्यक पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं. इससे मिट्टी की जैविक शक्ति घटती है और अगली फसल पर सीधा प्रभाव पड़ता है. खेतों में मौजूद लाभदायक सूक्ष्मजीव मर जाते हैं, जिससे भूमि धीरे-धीरे कम उपजाऊ हो जाती है. पराली जलने से उठने वाला धुआं आसपास के वातावरण को जहरीला बना देता है, जिसमें कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और अन्य खतरनाक कणों की मात्रा बढ़ जाती है. रामेश्वर, चंद्रमा, सकलदेव, रामनाथ, सुरेंद्र समेत कई किसानों का कहना है कि उनके पास पराली नष्ट करने के वैकल्पिक साधन नहीं हैं. मशीनें मिलने की घोषणाएं तो होती हैं, लेकिन वास्तविक रूप से ग्रामीण स्तर पर न मशीनें मिलती हैं, न प्रशिक्षण और न ही कोई प्रभावी समाधान. पंचायत स्तर पर बैठकें होती हैं, पर उनका अलग से कोई असर दिखायी नहीं देता. कई किसान इसे मजबूरी बताते हैं, तो कुछ इसे वर्षों पुरानी परंपरा और आसान तरीका मानकर अपनाते हैं. वहीं, विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि इसका दुष्परिणाम किसानों की अपनी भूमि को ही भुगतना पड़ता है.
किसानों को नहीं मिल रही वैकल्पिक व्यवस्था
किसानों का आरोप है कि पराली प्रबंधन के लिए न दवाएं उपलब्ध करायी गयीं, न मशीनें और न ही कोई प्रशिक्षण. वे बताते हैं कि योजनाओं की घोषणा तो कागजों पर दिखायी देती है, लेकिन क्रियान्वयन जमीन पर नदारद है. परिणामस्वरूप खेतों में पराली जलाना ही उन्हें आसान विकल्प लगता है. कई किसान यह भी कहते हैं कि सरकार ड्रोन से निगरानी की बात करती है, मगर गांवों में किसी प्रकार की वास्तविक निगरानी नजर नहीं आती. यह स्थिति न सिर्फ कृषि को प्रभावित कर रही है, बल्कि स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भी गंभीर खतरा बन गयी है. सुबह-शाम गांवों के पास से गुजरने पर धुएं का गुबार साफ दिखाई देता है. सांस लेने में तकलीफ, आंखों में जलन और अस्थमा रोगियों के लिए यह धुआं बेहद हानिकारक है. छोटे बच्चों और बुजुर्गों की सेहत पर इसका सीधा असर पड़ रहा है. ग्रामीणों का कहना है कि पराली पर रोक महज कागजी औपचारिकता बनकर रह गयी है.
फेफड़ों समेत अन्य गंभीर बीमारियों का खतरा
पराली जलने से PM2.5 और PM10 कणों की मात्रा बढ़ जाती है, जो फेफड़ों तक पहुंचकर बीमारियां पैदा करती हैं. डॉक्टरों के अनुसार ऐसे मौसम में श्वास संबंधी रोग तेजी से फैलते हैं. बदलते मौसम में यह धुआं और भी खतरनाक बन जाता है. ग्रामीणों का कहना है कि सरकार की ओर से उठाये जाने वाले कदमों की बातें हर साल की तरह इस बार भी हवा में ही तैर रही हैं. निगरानी कहां हो रही है, कैसे हो रही है और कब होगी, इसका कोई जवाब जमीन पर नहीं दिखता. कुल मिलाकर, पराली जलाना केवल एक कृषि समस्या नहीं, बल्कि पर्यावरण, स्वास्थ्य और मिट्टी की गुणवत्ता का गंभीर मुद्दा बन गया है. यदि जल्द ही प्रभावी कदम नहीं उठाये गये, तो आने वाले वर्षों में यह समस्या और विकराल रूप ले सकती है.
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