सिमरी
. एक तरफ आम के पेडों पर लिए मंजर का सुगंध, पछुआ हवा की सनसनाहट, वसंत की अंगड़ाई व पुष्प मंजरी फागुन आने की स्पष्ट संकेत दे रही है, तो दूसरी तरफ फागुन में ढोलक के थाप पर गुंजने वाली पारंपरिक लोकगीत फाग गायन आधुनिकता के दौर में सिकुड़ती जा रही है. दो दशक पूर्व वसंत पंचमी के दिन से ही गांव के चौपाल पर फाग गायन की मिठास गुंजायमान होने लगती थी, लोग फगुआ पर्व को प्रेम भाईचारा का प्रतीक मान कर एक दूसरे को रंग गुलाल से सराबोर कर देते थे,लेकिन बदलते परिवेश में पर्व त्योहार मनाने के तौर तरीके भी बदल गये हैं. वर्तमान समय में पारंपरिक होली गायन के ऊपर अश्लील द्विअर्थी गीत हावी होती जा रही है. फागुन आते ही कभी ढोलक की थाप व मंजीरों पर चारों तरफ पौराणिक फाग गीत गुंजायमान होने लगते थे, लेकिन आधुनिकता के दौर में ग्रामीण परिवेश की यह परंपरा लुप्त सी होती जा रही है.दो-ढाई दशक पहले फागुन महीने में गांवों में समूह बनाकर लोग फाग गाते थे लेकिन अब फाग गाने वालों की टोलियां कहीं दिखाई नहीं देती. धीरे धीरे गांवों कस्बों में सामूहिक रूप से होली गायन की परंपरा पहले की अपेक्षा सिमटती जा रही है.जोगी जी धीरे -धीरे, मोहन खेले होली हो, होली खेले रघूवीरा अवध में, होली के दिन सब मिल जाते है. आदि गीत अब सुनने को नहीं मिलते. डिजीटल युग में युवा पीढ़ी पारंपरिक लोकगीत से दूर होती जा रही है. हालांकि बुजुर्ग आज भी पारंपरिक गीतों को जीवित रखे हुए है. अश्लील होली गीतों के आगे अब होली की उमंग भी गायब होने लगी है. लोगों का कहना है की कालांतर में पारंपरिक रीति-रिवाज इतिहास के पन्नों में सिमट जायेगी. भारतीय संस्कृति से सराबोर होकर लोग फगुआ में सारे द्वेष कटुता को भूल अपने आप को एक टोली में समाहित कर आपसी भाईचारा का संदेश देते थे. समूह में गाये जाने वाला फाग गीत गांव की मिट्टी की खुशबू प्रदान करती थी. एक महीना पहले से हीं होली के आने की खुशी से लोग झूमने लगते थे. इन गीतों में भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक तथा पारंपरिक रीति -रिवाजों की झलक देखने को मिलता था.फाग गायन हमारी लोक संस्कृति की पहचान हुआ करती है. समय के साथ साथ सब कुछ बदलने लगा व रिश्ते औपचारिक होते गए. होली पर्व की रस्म अदायगी के तौर पर फाग गीत कहीं कहीं सुनने को मिल रहे हैं. अब पुराने होली गीत की जगह अश्लील भोजपुरी गीत ले चूकी है. गांवों में लगने वाले चौपाल के साथ-साथ बूढ़े-बुजुर्गों का जमघट गांवों से गायब होते जा रहा है. डीजिटल युग में अब फागुनी मिठास गायब हो चुकी है. गांवों की मिट्टी की पहचान भारतीय संस्कृति पर आधारित फाग गीतों की धुन अब सुनाई नहीं देती. हमारी लोक परंपरा को समाहित किए हुए ये फाग गीत आधुनिकता के दौर में धीरे -धीरे विलुप्त होती जा रही है. -क्या कहते हैं ग्रामीण दो दशक पूर्व गांवों में कई स्थानों पर फाग गाने वालों की महफिल सजने लगती थी. लेकिन वक्त के साथ-साथ महफिलों की संख्या कम होने लगी. वर्तमान में कुछेक गांवों में ही फाग गाए जा रहे हैं. आधुनिकता की चकाचौंध और बाजारवादी संस्कृति की वजह से फाग गायकी की परंपरा अब सिमट कर रह गई है. अब तो भोजपुरी की अश्लीलता होली फाग गीतों पर हावी हो चुकी हैरामजी दूबे अब लोग मौजूदा समय मे पारंपरिक रीति-रिवाज से दूरी बना रहे है.वर्तमान समय मे लोग आधुनिकता को महत्व दे रहे हैं. युवा पीढी समाज के धरोहर है.उन्हें अपने संस्कृति को बचाने के लिए आगे आना चाहिए रामराघव दूबेडिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

