राजगीर. नव नालंदा महाविहार में आयोजित भारतीय ज्ञान परंपरा और भारतीय भाषाएं विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन सत्र में वक्ताओं ने भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाएं केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि ज्ञान, दर्शन और वैज्ञानिक चेतना की संवाहक रही हैं। प्राचीन ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों और आयुर्वेद जैसे शास्त्रों की रचना इन्हीं भाषाओं में हुई, जो आज भी विश्व के लिए मार्गदर्शक हैं. वक्ताओं ने यह भी कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा का संरक्षण और संवर्धन तभी संभव है, जब भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दी जाए. शिक्षा व्यवस्था में मातृभाषा को स्थान देने, शोध एवं अनुवाद कार्यों को बढ़ावा देने और युवाओं को अपनी भाषाओं से जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया गया. संगोष्ठी के समापन पर यह संकल्प लिया गया कि भारतीय भाषाओं और ज्ञान परंपरा को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित करने के लिए संयुक्त प्रयास किए जाएंगे. इस अवसर पर कुलपति प्रो सिद्धार्थ सिंह ने समापन सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि भारतीय दर्शन, शास्त्र, लोक परंपराएं, संगीत, रंगमंच, शिल्प और आदिवासी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ ये सभी मिलकर उस व्यापक “भारतीय ज्ञान परंपरा ” को परिभाषित करते हैं, जिसे एक स्वतंत्र, समग्र और संरचित अनुशासन के रूप में स्थापित करना समय की आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि किसी भी प्रकार के विवाद और संघर्ष को समझने के लिए कॉनफ्लिक्ट मैपिंग की पद्धति अत्यंत उपयोगी है. उसमें “ट्रैक्टेबल ” और “इंट्रैक्टेबल ” जैसे विविध प्रकारों का उल्लेख किया गया है. उदाहरण के रूप में उन्होंने इस्राइल-फिलिस्तीन विवाद का हवाला दिया जो ऐतिहासिक, धार्मिक और भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से अत्यंत जटिल है. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के ‘एजेंडा फॉर पीस’ में वर्णित तीन प्रमुख अवधारणाओं पीसमेकिंग, पीसकीपिंग और पीसबिल्डिंग का उल्लेख करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीय दर्शन में संघर्ष के समाधान के लिए संवाद और समावेश की परंपरा रही है. कुलपति ने “अंधों और हाथी ” की प्रसिद्ध कथा का उल्लेख करते हुए कहा कि कैसे विभिन्न दार्शनिक परंपराएँ एक ही सत्य के अंश को अपनी दृष्टि से देखती हैं. उन्होंने बौद्ध, जैन और सूफ़ी परंपराओं में इस दृष्टांत के विभिन्न संस्करणों का हवाला देते हुए कहा कि भारतीय चिंतन परंपरा ने कभी एकमात्र सत्य के आग्रह पर बल नहीं दिया, बल्कि “अनेकांतवाद ” और “स्यादवाद ” जैसी अवधारणाओं के माध्यम से बहुलता को स्वीकार किया है. उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति की छाप विश्व के कोने-कोने में देखी जा सकती है. चाहे वह जापान में हिन्दू देवी- देवताओं की उपस्थिति हो, अज़रबैजान की राजधानी बाकू का प्राचीन हिंदू मंदिर हो या हंगरी के प्राचीन शहरों में बौद्ध प्रभाव के दावे. उन्होंने यह भी बताया कि भारतीय शब्द और ध्वनियाँ जर्मन और जापानी भाषाओं तक में परिलक्षित होती हैं. उन्होंने आह्वान किया कि सांस्कृतिक गौरवगान से आगे बढ़कर इस समृद्ध ज्ञान परंपरा को अकादमिक और वैश्विक स्तर पर एक संगठित अनुशासन के रूप में पुनः प्रतिष्ठित किया जाय.
डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है