Bihar Women Voters 2025 : आजादी के बाद से बिहार की राजनीति ने कई करवटें लीं, जातीय समीकरण बदले, दल बदले, नेता बदले, लेकिन महिलाओं के हिस्से नेतृत्व की कुर्सी नहीं आई. हां, मतदाता के रूप में उन्होंने राजनीति की दशा-दिशा तय की और बार-बार साबित किया कि उनका वोट निर्णायक है.
यही वजह है कि 2025 का चुनाव महिला मतदाताओं को केंद्र में रखकर लड़ा जा रहा है. हर दल महिलाओं को रिझाने की कवायद कर रहा है, योजनाओं और घोषणाओं की झड़ी लगाई जा रही है. मगर असल सवाल है—क्या महिलाएं इस बार भी महज मतदाता बनकर रह जाएंगी या उन्हें राजनीति के नेतृत्व में बराबरी का हक मिलेगा?

वोटिंग प्रतिशत में महिलाएं आगे, फिर भी नेतृत्व से बाहर
बिहार के चुनावी आंकड़े इस सच्चाई की गवाही देते हैं कि महिलाएं अब सिर्फ वोटर सूची की गिनती भर नहीं हैं, बल्कि मतदान प्रतिशत में पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं. गांव से लेकर शहर तक, बूथों पर महिलाओं की लंबी कतारें चुनावी लोकतंत्र की नई तस्वीर पेश करती हैं. उनके वोट ने कई बार चुनावी नतीजों का पासा पलट दिया है. यह वही वोट बैंक है जिसने नेताओं की हार-जीत तय की है, सरकारें बनवाई हैं और कभी-कभी गद्दी से उतारने का भी काम किया है.
लेकिन जब संगठनात्मक हिस्सेदारी की बात आती है तो यही महिलाएं हाशिए पर धकेल दी जाती हैं. बिहार की राजनीति में आज तक कोई भी महिला प्रदेश अध्यक्ष नहीं बन सकी. किसी बड़े दल ने अपनी कमान महिला नेता के हाथों में सौंपने की हिम्मत नहीं दिखाई. आजादी के बाद से अब तक राज्य सिर्फ एक महिला मुख्यमंत्री और एक उप मुख्यमंत्री देने तक ही सीमित रहा है. बाकी नेतृत्व की कुर्सियां पुरुषों के कब्जे में रही हैं.
यह विरोधाभास लोकतंत्र के लिए गंभीर सवाल खड़ा करता है. जब महिलाएं मतदान में सक्रिय भूमिका निभा सकती हैं, जब उनके वोट से सत्ता की दिशा बदल सकती है, तब उन्हें नेतृत्व से बाहर रखना क्या लोकतांत्रिक न्याय के खिलाफ नहीं है? यह स्थिति बताती है कि राजनीतिक दल महिलाओं को वोट तो चाहते हैं, लेकिन उन्हें बराबरी का हिस्सा देने से कतराते हैं.
वोट बैंक या राजनीतिक भागीदारी?
महिलाएं वोट डालने में पुरुषों से आगे हैं, लेकिन दलों के संगठनात्मक नेतृत्व में उनकी भागीदारी बेहद कम है. हर चुनाव में उन्हें वादों और योजनाओं के जरिए रिझाया तो जाता है, लेकिन टिकट बंटवारे में उनका हिस्सा नगण्य रहता है. नतीजा यह है कि वे निर्णायक मतदाता तो हैं, लेकिन नीति निर्धारण की मेज पर उनकी आवाज कमजोर पड़ जाती है.
कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को सामने लाकर महिला मतदाताओं के बीच सीधी पैठ बनाने की कोशिश की है. उनकी महिला संवाद यात्रा और राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा के जरिए पार्टी ने महिलाओं को केंद्र में रखा है. यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस इस बार महिलाओं को टिकट देने में भी उदार होगी या केवल मंच और भाषण तक ही सीमित रहेगी.
राजद सुप्रीमो लालू यादव ने अतीत में ‘माई-लालू’ समीकरण गढ़ा था. अब तेजस्वी यादव भी उसी राह पर हैं. बहिनी योजना और MAA योजना उनके राजनीतिक पैकेज का हिस्सा हैं. सवाल यह है कि क्या वे महिलाओं को केवल वोट बैंक के रूप में देख रहे हैं या वास्तव में उन्हें संगठन और सत्ता में बराबरी देंगे?
भाजपा और जदयू सत्ता में हैं, लिहाजा महिलाओं के लिए योजनाएं लागू करने की जिम्मेदारी भी इन्हीं पर है. बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ से लेकर महिला रोजगार योजना तक कई कार्यक्रम चल रहे हैं. लेकिन विपक्ष सवाल उठाता है कि क्या ये योजनाएं जमीनी स्तर तक पहुँच पा रही हैं?

महिला वोट: खेल बदलने वाली ताकत
बिहार की राजनीति में महिला मतदाता अब महज गिनती भर नहीं रह गईं, वे खेल बदलने वाली ताकत बन चुकी हैं. उनका वोट सिर्फ़ संख्या नहीं है, बल्कि सत्ता का रास्ता तय करने वाला निर्णायक समीकरण है. यही वजह है कि हर राजनीतिक दल चुनाव से पहले महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणाओं और योजनाओं का पुलिंदा खोल देता है. कहीं रोजगार योजना के नाम पर, तो कहीं मासिक सहायता या सुरक्षा और सम्मान की गारंटी देकर महिलाओें को साधने की कोशिश होती है.
लेकिन इस सियासी चहल-पहल के बीच सबसे बड़ा सवाल जस का तस है—क्या महिलाएं केवल वोट बैंक बनी रहेंगी या इस बार राजनीतिक दल उन्हें संगठनात्मक नेतृत्व की सीट भी सौंपेंगे? यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि मतदान में पुरुषों से आगे निकल चुकी महिलाएं आज भी पार्टी की कमान से बाहर हैं. चुनावी सभाओं में तालियाँ बजाने और वोट डालने तक उनकी भूमिका तय कर दी जाती है, मगर प्रदेश अध्यक्ष या राष्ट्रीय नेतृत्व के पद पर पहुंचने का रास्ता उनके लिए अब भी बंद है.
महिलाओं का यह विरोधाभासी दर्जा बताता है कि लोकतंत्र में उनकी भागीदारी का असर जितना दिखता है, उतना उन्हें राजनीतिक ताक़त में तब्दील नहीं किया जाता. अगर उनका वोट खेल बदल सकता है, तो क्या अब उनकी राजनीतिक हैसियत भी बदलेगी—यही 2025 के चुनावी मौसम का सबसे बड़ा सवाल है.
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