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भगवान और शैतान

हमारे पास दो शब्द हैं- भगवान और शैतान. जब किसी चीज को हम पसंद नहीं करते, तो हम कहते हैं- शैतान से जुड़ा है; और किसी चीज को जब हम पसंद करते हैं, तो हम कहते हैं- भगवान से जुड़ा है. लेकिन, मेरा मानना है कि अज्ञात से जुड़ा है. असल में जो हमें पसंद […]

हमारे पास दो शब्द हैं- भगवान और शैतान. जब किसी चीज को हम पसंद नहीं करते, तो हम कहते हैं- शैतान से जुड़ा है; और किसी चीज को जब हम पसंद करते हैं, तो हम कहते हैं- भगवान से जुड़ा है.

लेकिन, मेरा मानना है कि अज्ञात से जुड़ा है. असल में जो हमें पसंद नहीं है, मन होता है कि वह शैतान ने किया होगा. जो गलत, असंगत नहीं है, वह भगवान ने किया होगा. ऐसा हमने सोच रखा है कि हम जीवन के केंद्र पर हैं और जो हमें पसंद पड़ता है, वह भगवान का किया हुआ है. जो पसंद नहीं पड़ता, वह शैतान का किया हुआ है. यह मनुष्य का अहंकार है, जिसने शैतान और भगवान को भी अपनी सेवा में लगा रखा है. भगवान के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं. जिसे हम शैतान कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है. जिसे हम बुरा कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है. और अगर हम बुरे में भी गहरे देख पायें, तो फौरन हम पायेंगे कि बुरे में भला छिपा होता है.

दुख में भी गहरे देख पायें, तो पायेंगे कि सुख छिपा होता है. असल में बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. शैतान के खिलाफ जो भगवान है, उसे मैं अज्ञात नहीं कह रहा; मैं अज्ञात उसे कह रहा हूं, जो हम सबके जीवन की भूमि है, जो अस्तित्व का आधार है. उस अस्तित्व के आधार से ही रावण भी निकलता है, उसी आधार से ही भगवान भी निकलता है. उस अस्तित्व से अंधकार भी निकलता है और प्रकाश भी निकलता है. हमें अंधकार में डर लगता है, तो मन होता है कि श्ह अंधकार शैतान पैदा करता होगा. हमें रोशनी अच्छी लगती है, तो मन होता है कि यह रोशनी भगवान पैदा करता होगा.

लेकिन अंधकार में कुछ भी बुरा नहीं है, रोशनी में कुछ भी भला नहीं है. जो अस्तित्व को प्रेम करता है, वह अंधकार में भी परमात्मा को पायेगा और प्रकाश में भी परमात्मा को पायेगा. भय के कारण हम अंधकार के सौंदर्य को कभी जान ही नहीं पाते. उसके रस को, उसके रहस्य को हम कभी जान ही नहीं पाते. हमारा भय मनुष्य निर्मित भय है. अग्नि जब पहली दफा प्रकट हुई, तो हमने उसे देवता बनाया. क्योंकि रात निश्चिंत हो गयी; आग जला कर हम निर्भय हुए. और अंधेरा हमारे अनुभव में भय से जुड़ गया है.

– आचार्य रजनीश ओशो

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