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अनिष्ट नहीं चाहते कृष्ण

वैदिक आदेशानुसार आततायी छह प्रकार के होते हैं- विष देनेवाला, घर में अग्नि लगानेवाला, घातक हथियार से आक्रमण करनेवाला, धन लूटनेवाला, दूसरे की भूमि हड़पनेवाला तथा पराई स्त्री का अपहरण करनेवाला. वैदिक आदेशानुसार ऐसे आततायियों का तुरंत वध कर देना चाहिए, क्योंकि इनके वध से कोई पाप नहीं लगता. आततायियों का इस तरह वध करना […]

वैदिक आदेशानुसार आततायी छह प्रकार के होते हैं- विष देनेवाला, घर में अग्नि लगानेवाला, घातक हथियार से आक्रमण करनेवाला, धन लूटनेवाला, दूसरे की भूमि हड़पनेवाला तथा पराई स्त्री का अपहरण करनेवाला. वैदिक आदेशानुसार ऐसे आततायियों का तुरंत वध कर देना चाहिए, क्योंकि इनके वध से कोई पाप नहीं लगता. आततायियों का इस तरह वध करना सामान्य व्यक्ति को शोभा दे सकता है, किंतु अर्जुन सामान्य व्यक्ति नहीं है. वह स्वभाव से साधु है. अत: वह उनके साथ साधुवत व्यवहार करना चाहता था. किंतु इस प्रकार का व्यवहार क्षत्रिय के लिए उपयुक्त नहीं है. यद्यपि राज्य के प्रशासन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को साधु प्रकृति का होना चाहिए, किंतु कायर नहीं होना चाहिए.

उदाहरणार्थ, भगवान राम इतने साधु थे कि आज भी लोग रामराज्य में रहना चाहते हैं, किंतु उन्होंने कभी कायरता प्रदर्शित नहीं की. रावण आततायी था, इसलिए राम ने उसे ऐसा पाठ पढ़ाया, जो विश्व-इतिहास में बेजोड़ है. अर्जुन के प्रसंग में विशिष्ट प्रकार के आततायियों से भेंट होती है- ये हैं उसके निजी पितामह, आचार्य, मित्र, पुत्र, पौत्र इत्यादि. इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि उनके प्रति यह सामान्य आततायियों जैसा कटु व्यवहार न करे. इसके अतिरिक्त, साधु पुरुषों को तो क्षमा करने की सलाह दी जाती है. साधु पुरुषों के लिए ऐसे आदेश किसी राजनीतिक आपातकाल से अधिक महत्व रखते हैं.

इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि राजनीतिक कारणों से स्वजनों का वध करने की अपेक्षा धर्म तथा सदाचार की दृष्टि से उन्हें क्षमा कर देना श्रेयस्कर होगा. अत: क्षणिक शारीरिक सुख के लिए इस तरह वध करना लाभप्रद नहीं होगा.

अंतत: जब सारा राज्य तथा उससे प्राप्त सुख स्थायी नहीं हैं, तो फिर अपने स्वजनों को मार कर वह अपने ही जीवन तथा मुक्ति को संकट में क्यों डाले? अर्जुन द्वारा ‘कृष्ण’ को ‘माधव’ अथवा ‘लक्ष्मीपति’ के रूप में संबोधित करना भी सार्थक है. वह कृष्ण को यह बताना चाह रहा था कि वे उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित न करें, जिससे अनिष्ट हो. किंतु कृष्ण कभी भी किसी का अनिष्ट नहीं चाहते, भक्तों का तो कदापि नहीं.

– स्वामी प्रभुपाद

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