मन यदि किसी समस्या को समझना चाहता है, तो यह जरूरी है कि वह न केवल पूर्णता व समग्रता से उस समस्या को समझे, बल्कि उस समस्या पर लगातार नजर रख पाये, क्योंकि समस्या कभी स्थिर नहीं रहती. समस्या चाहे भूख की हो, मनोवैज्ञानिक हो या कोई और, वह सदा नवीन ही होती है.
मुझे लगता है हममें से अधिकतर व्यक्ति एक आंतरिक क्रांति की तत्काल आवश्यकता का अनुभव करते हैं, ऐसी क्रांति जो बाहरी जगत का, समाज का आमूल परिवर्तन कर सके. हमारी समस्या है कि समाज में कैसे आमूल एवं आधारभूत परिवर्तन लाएं और बाह्य स्तर पर यह परिवर्तन आंतरिक क्रांति के बिना नहीं हो सकता. चूंकि समाज सदा यथास्थिति में रहना चाहता है. इसलिए इस सतत आंतरिक क्रांति के अलावा कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि बिना उसके बाह्य क्रिया केवल एक आदत बन कर रह जाती है.
समाज तो हमारे और आपके बीच का संबंध और उसमें घटनेवाली क्रिया है; और वह समाज जड़वत व मृतप्राय हो जाता है, जब तक कि यह सतत आंतरिक क्रांति न हो, हमारे भीतर एक सर्जनशील, मनोवैज्ञानिक परिवर्तन न हो. इसके अभाव में ही समाज निरंतर गतिहीन व जड़ हो रहा है और इसीलिए उसे लगातार भंग करने की जरूरत है. हमारे चारों ओर होनेवाले क्लेश और भ्रांति में क्या संबंध है? ये अपने आप नहीं आये, आप और मैं इन्हें लाये हैं. समाज हमारे संबंधों का नतीजा है.
जे कृष्णमूर्ति