अधिकतर व्यक्ति समाज-संरचना में आमूल परिवर्तन देखना चाहते हैं. विश्व में सारा संघर्ष इसी बात को लेकर हो रहा है कि कैसे साम्यवादी या अन्य तरीकों से एक सामाजिक क्रांति लायी जाये. अब यदि कोई सामाजिक क्रांति होती है, अर्थात् ऐसी क्रिया जिसका संबंध केवल मनुष्य की बाह्य संरचना से है, और व्यक्ति में कोई आंतरिक क्रांति नहीं होती, तो वह सामाजिक क्रांति चाहे जितनी मूलभूत क्यों न हो, अपने स्वरूप से ही जड़वत होगी.
अत: एक ऐसा समाज बनाने के लिए, जो मशीन की तरह पुनरावृत्ति में नहीं लगा है, जो विघटनशील नहीं है, जो गतिशील है, यह आवश्यक है कि व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक संरचना में एक क्रांति हो. क्योंकि बिना आंतरिक, मनोवैज्ञानिक क्रांति के बाहरी परिवर्तन का कोई महत्व नहीं है. तात्पर्य यह कि समाज निरंतर गतिहीन होता जा रहा है, और इसीलिए निरंतर विघटित हो रहा है.
ऐसे में चाहे जितनी संख्या में और चाहे जितनी बुद्धिमानी से कानून बनाये जायें, समाज सदा पतनोन्मुख ही रहेगा, क्योंकि क्रांति अपने भीतर होनी चाहिए, न कि केवल बाह्य स्तर पर. यदि व्यक्तियों के बीच संबंध, जो कि एक समाज है, आंतरिक क्रांति का परिणाम नहीं है, तो वह जड़वत सामाजिक संरचना व्यक्ति को आत्मसात कर लेती है और उसे अपने जैसा ही जड़ और दोहरावभरा बना देती है. यदि हम इसे समझ लेते हैं, इस तथ्य के असाधारण महत्व को देख लेते हैं, तो फिर इस पर सहमति या असहमति का कोई सवाल ही नहीं उठता.
जे कृष्णमूर्ति