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नियम में बद्ध ईश्वर!

भगवान का दंड एवं उपहार दोनों असाधारण होते हैं. इसलिए आस्तिक को सदा ध्यान रहेगा कि दंड से बचा जाये और भगवान से उपहार पाया जाये. यह प्रयोजन छिटपुट पूजा-अर्चना से पूरा नहीं हो सकता, यह भावनाओं और क्रियाओं को उत्कृष्टता के सांचे में ढालने से होता है. न्यायनिष्ठ जज की तरह ईश्वर किसी के […]

भगवान का दंड एवं उपहार दोनों असाधारण होते हैं. इसलिए आस्तिक को सदा ध्यान रहेगा कि दंड से बचा जाये और भगवान से उपहार पाया जाये. यह प्रयोजन छिटपुट पूजा-अर्चना से पूरा नहीं हो सकता, यह भावनाओं और क्रियाओं को उत्कृष्टता के सांचे में ढालने से होता है.
न्यायनिष्ठ जज की तरह ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता. अपना गुणगान करनेवाले के साथ यदि वह पक्षपात करेगा, तो उसकी न्याय व्यवस्था का कोई मूल्य नहीं और सृष्टि की व्यवस्था बिगड़ जायेगी.
सबको अनुशासन में रखनेवाला परमेश्वर स्वयं नियम व्यवस्था में बंधा है. यदि वह उच्छृंखलता व अव्यवस्था बरतेगा, तो फिर उसकी सृष्टि में पूरी तरह अंधेरा फैल जायेगा. फिर कोई उसे न्यायकारी नहीं कहेगा. उसको हम न्यायकारी समझ कर उसके दंड से डरें. उसका भक्त वत्सल ही नहीं, रौद्र रूप भी है, जो रुग्ण, मूक, बधिर, अंध, अपंगों की दशा देख कर समझा जा सकता है. न्यायनिष्ठ जज की तरह उसे भी भक्त-अभक्त, प्रशंसक-निंदक का भेद किये बिना व्यक्ति के शुभ-अशुभ कर्मो का दंड या पुरस्कार देना होता है.
उपासना का उद्देश्य ईश्वर से अनुचित पक्षपात करना नहीं होना चाहिए. वह हमें सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहने और सत्पथ से विचलित न होने की दृढ़ता दे, यही उसकी सर्वश्रेष्ठ कृपा है. व्यक्ति के आस्तिक या नास्तिक की पहचान तिलक, जनेऊ, कंठी, माला आदि के आधार पर नहीं, वरन् भावनात्मक गतिविधियों को देख कर ही होती है.
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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