धन, पद, बल, परिवार, वैभव, वर्चस्व आदि संपदाएं हैं. विभूतियां उन आत्मिक गुणों को कहते हैं, जो व्यक्तित्व को सुव्यवस्थित बनाने में सहायक होते हैं. धनवान का बड़प्पन और गुणवान की महानता दोनों की तुलना में सामान्य बुद्धि भले ही संपत्ति को प्रधानता दे, पर विवेकवान यही निर्णय करेंगे कि सद्गुणों की पूंजी-विभूति प्रत्येक दृष्टि से अधिक ऊंची और अधिक श्रेयस्कर है.
भौतिक उपलब्धियां तभी तक आकर्षक प्रतीत होती हैं, जब तक वे मिल नहीं जातीं. मिलने पर तो उनके साथ जुड़े हुए झंझट और उन्माद इतने विषम होते हैं कि अंतत: उनके कारण मनुष्य अधिक अशांत उद्विग्न रहने लगता है. वस्तुस्थिति को समझनेवाला संपत्तिवान देखता है कि संपत्ति का निजी उपयोग उतना ही हो सका, जितना कि निर्धन कर पाते हैं. जो अतिरिक्त जमा किया गया था, उसने मित्र वेषधारी शत्रुओं की, अगणित उलझनों की तथा चरित्रगत दोष-दुर्गुणों की एक बड़ी फौज सामने लाकर खड़ी कर दी.
जितना श्रम और मनोयोग संपदा के उपार्जन में लगाया जाये, उतना ही ध्यान एवं प्रयास सद्गुणों के अभिवर्धन पर केंद्रित किया जाये, तो उस आत्मपरिष्कार का लाभ असाधारण रूप से उपलब्ध होगा. सत्कर्मो में निरत रहने से आत्मसंतोष का ऐसा आनंद छाया रहता है, जिसकी तुलना संपत्ति के उन्माद से नहीं की जा सकती. परिष्कृत स्वभाव के कारण अपने व्यवहार में जो शालीनता उत्पन्न होती है, वह संपर्क में आनेवालों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती.
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य