ईश्वर की उपासना के लिए किसी मुहूर्त विशेष की प्रतीक्षा नहीं की जाती. सारा समय भगवान का है, सभी दिन पवित्र हैं, हर घड़ी शुभ मुहूर्त है. हां, प्रकृति में कुछ विशिष्ट अवसर ऐसे आते हैं कि कालचक्र की उस प्रतिक्रिया से मनुष्य सहज ही लाभ उठा सकता है.
कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाता ऋषियों ने प्रकृति के अंतराल में चल रहे विशिष्ट उभारों को दृष्टिगत रख कर ही ऋतुओं के इस मिलन काल की संधिवेला को नवरात्र की संज्ञा दी है. नवरात्र पर्वों का साधना विज्ञान में विशेष महत्व है. प्रात:कालीन और सायंकालीन संध्या को पूजा-उपासना के लिए महत्वपूर्ण माना गया है.
शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के परिवर्तन के दो दिन पूर्णिमा एवं अमावस्या के नाम से जाने जाते हैं तथा कई महत्वपूर्ण पर्व इसी संधिवेला में मनाये जाते हैं. इसी प्रकार ऋतुओं का भी संधिकाल होता है. शीत और ग्रीष्म ऋतुओं के मिलन का यह संधिकाल वर्ष में दो बार आता है. चैत्र में मौसम ठंडक से बदल कर गर्मी का रूप ले लेता है और आश्विन में गर्मी से ठंडक का.
आयुर्वेदाचार्य शरीर शोधन-विरेचन एवं कायाकल्प जैसे विभिन्न प्रयोगों के लिए संधिकाल की इसी अवधि की प्रतीक्षा करते हैं. शरीर और मन के विकारों का निष्कासन-परिशोधन भी इस अवसर पर आसानी से हो सकता है. स्त्रियों को महीने में जिस प्रकार ऋतुकाल आता है, उसी प्रकार नवरात्रियां भी प्रकृति जगत में ऋतुओं का ऋतुकाल हैं, जो नौ-नौ दिन के होती हैं. उस समय उष्णता और शीत दोनों ही साम्यावस्था में होते हैं.
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य