New Book: आधुनिक समाजों में जन्म-आधारित सामाजिक विभाजन एक सामान्य वैश्विक प्रवृत्ति रही है. दुनिया के कई हिस्सों में सामाजिक बहिष्कार और सामाजिक अभिजात्य वर्ग का वर्चस्व देखने को मिला है. ऐसे में जाति और अस्पृश्यता को केवल भारत की विशिष्ट सामाजिक-धार्मिक समस्या के रूप में देखना एक पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण है, न कि एक तटस्थ सत्य. हाल ही में आयी अरविंदन नीलकंदन की पुस्तक ‘ए धार्मिक साेशल हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में इस बात का जिक्र किया गया है. पुस्तक में इस बात पर जोर दिया गया है कि भारत के सामाजिक विकास की सही समझ के लिए हिंदू दृष्टिकोण से समाजशास्त्र की नयी परिभाषा और संरचना की आवश्यकता है.
वर्तमान सामाजिक विज्ञान अभी भी औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है, यहां तक कि वे लोग भी, जो खुद को परंपरावादी मानते हैं, उनकी सोच में उपनिवेशवादी प्रभाव साफ झलकता है. इसलिए, पुस्तक में एक “हिंदू सोशल साइंस” की अवधारणा को प्रस्तावित किया गया है, जो न केवल समाज की यथार्थ समझ प्रदान करे, बल्कि औपनिवेशिक प्रभावों और सामाजिक जड़ता के दुष्प्रभावों को भी समाप्त कर सके.
हड़प्पा और वैदिक युग के संबंधों पर पुनर्विचार
पुस्तक में वैदिक और हड़प्पा सभ्यताओं के बीच संबंधों को लेकर प्रचलित धारणाओं पर भी प्रश्न उठाए गए हैं. आर्य आक्रमण सिद्धांत, जो लंबे समय तक प्रमुख रहा है, अब अपनी साख खो चुका है. लेकिन इसे पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया गया है. पुस्तक में यह भी बताने का प्रयास किया गया है कि वर्ण व्यवस्था के उद्भव को केवल आर्यों या ब्राह्मणों द्वारा थोपे गए जातीय सिद्धांत के रूप में देखना एक अति सरलीकृत दृष्टिकोण है. इस विषय पर अधिक संतुलित दृष्टिकोण के लिए पुरातत्व, भाषाविज्ञान, मानवशास्त्र और आनुवंशिकी जैसे विभिन्न क्षेत्रों से साक्ष्य लिए जाने की आवश्यकता है.
पुस्तक में यह भी तर्क दिया गया है कि वैदिक यज्ञ की अवधारणा ने सामाजिक व्यवसायों से जुड़ी कलंक भावना को मिटाने का प्रयास किया. वैदिक ग्रंथों में सामाजिक भेदभाव का उल्लेख अवश्य है, लेकिन वहीं वेदों की मूल्य प्रणाली उस भेदभाव के खिलाफ भी खड़ी होती है. यह दृष्टिकोण वैदिक धर्म को एक गतिशील, बहुस्तरीय समाज के रूप में प्रस्तुत करता है, जो आज की जमी हुई आलोचनात्मक धारणाओं से कहीं अधिक जटिल और समावेशी था.
बुद्ध और वेद : विरोध या समरसता?
पुस्तक इस प्रश्न को भी उठाती है कि, क्या बुद्ध का धर्म वैदिक धर्म के विरुद्ध एक क्रांति थी या उसी सामाजिक ताने-बाने का स्वाभाविक विस्तार? अब तक के विमर्शों में बौद्ध धर्म को मुक्ति का प्रतीक और वैदिक परंपरा को उत्पीड़न का स्रोत बताया गया है. यह पुस्तक इस खांचे को तोड़ते हुए भगवद गीता जैसे ग्रंथों के माध्यम से एक व्यापक व्याख्यात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है.
पुस्तक में भक्ति परंपरा को भारतीय सामाजिक लोकतंत्र की आत्मा बताया गया है. भक्ति आंदोलन न केवल धार्मिक चेतना, बल्कि जातिगत दीवारों को तोड़ने में भी अहम भूमिका निभाई. शैव और वैष्णव संप्रदायों की भक्ति परंपराओं ने समाज में समता और समरसता का वातावरण निर्मित किया, जो आज भी प्रासंगिक है.
भक्ति एक शांतिपूर्ण और आत्मिक क्रांति के रूप में सामाजिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है, जिसमें सत्ता का विकेंद्रीकरण और व्यक्तित्व की स्वतंत्रता निहित है. निश्चित रूप से यह पुस्तक न केवल जातिगत व्यवस्था की वैकल्पिक व्याख्या प्रस्तुत करती है, बल्कि भारतीय समाज के अध्ययन के लिए एक मौलिक ढांचा प्रस्तुत करती है, जो औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों से मुक्त और वैदिक परंपरा के मूल्यों से अनुप्राणित है.