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‍विवादों के घेरे में मंगलेश डबराल

पिछले दिनों हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार मंगलेश डबराल ने फेसबुक पर एक स्टेटस लिखा कि ‘‘हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है। हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं, क्योंकि उन्हें खूब लिखा जा रहा है। लेकिन […]

पिछले दिनों हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार मंगलेश डबराल ने फेसबुक पर एक स्टेटस लिखा कि ‘‘हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है। हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं, क्योंकि उन्हें खूब लिखा जा रहा है। लेकिन हिंदी अब सिर्फ ‘जय श्रीराम’ और ‘वंदे मातरम’ तथा ‘मुसलमान का एक ही स्थान- पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ जैसी चीजें जीवित हैं। इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है। काश इस भाषा में न जन्मा होता!’’
इस बयान पर खूब विवाद हो रहा है. एक पक्ष इसे मंगलेश डबराल की निराशा की अभिव्यक्ति कह रहा है, तो दूसरा पक्ष उन्हें कुंठित हिंदी विरोधी की संज्ञा दे रहा है. बहरहाल, यह बहस अगर तर्कों और संवेदनाओं के साथ आगे बढ़े, तो हिंदी लोकवृत्त को आगे ले जाने में सहायक हो सकती है. इसे संकीर्ण खांचों में बंट जाने और अमर्यादित होने से भी बचाया जाना चाहिए. वर्तमान हिंदी परिदृश्य के इस प्रासंगिक विवाद के कुछ प्रतिनिधि स्वरों के साथ यह विशेष प्रस्तुति…

क्या हिंदी अब हत्यारों की भाषा है?
कृष्ण कल्पित
वरिष्ठ कवि
हिंदी कवि और अनुवादक मंगलेश डबराल के बयान को सही मानें, तो फिर कबीर, प्रेमचंद और निराला की भाषा क्या है? मुक्तिबोध, नागार्जुन और विष्णु खरे की भाषा क्या है? क्या अंग्रेजी शेक्सपियर की नहीं साम्राज्यवादियों, व्यापारियों और लुटेरों की भाषा है? क्या इटेलियन इतालो काल्विनो की नहीं, सिर्फ माफिया-गिरोहों की भाषा है? क्या जर्मन गेटे की नहीं, गोएबल्स की भाषा है? क्या संस्कृत कालिदास और भर्तृहरि की नहीं, ब्राह्मणवादियों की भाषा है? क्या उर्दू गालिब और मीर की नहीं, आतंकवादियों की भाषा है?
भाषा समाज सापेक्ष होती है. जिस भाषा में कवि कविता लिखता है, वह उसी समय हत्यारों की भाषा भी होती है. भाषा पवित्र या अपवित्र नहीं होती. इसलिए प्रश्न है कि आखिर मंगलेश की मंशा क्या है? पहले तो वे कहते हैं कि हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास यानी साहित्य की मृत्यु हो चुकी है.
फूको के हवाले से हिंदी के हास्यालोचक सुधीश पचौरी इनके अंत की घोषणा बहुत पहले कर चुके हैं. इस घिसी-पिटी बात के बाद डबराल कहते हैं कि हिंदी अब सिर्फ लिंचिंग-गिरोहों की भाषा है, जिसमें अब कुछ भी सर्जनात्मक लिखना संभव नहीं, तो यहां वे अपनी अक्षमता भाषा पर थोप रहे हैं. जब भीतर कुछ बचा नहीं, तो सिर्फ भाषा आपको पाब्लो नेरुदा कैसे बना देगी?
मंगलेश डबराल हिंदी में जन्म लेकर शर्मिंदा हैं. यह बात वेदना के साथ कही जाती तो अलग बात थी, लेकिन यहां तो अपनी भाषा के प्रति हिकारत और घृणा नजर आती है, जबकि अपने एक साक्षात्कार में वे स्वीकार कर चुके हैं कि हिंदी ने मुझे बहुत कुछ दिया. मंगलेश ने जिस कारण यह पोस्ट लिखी थी, वह पूरा हुआ.
इस पर जिस तरह की अच्छी-बुरी और मूर्खतापूर्ण टिप्पणियां आ रही हैं, वे यही चाहते थे. जब कविताओं से कुछ नहीं हो रहा, तो यही सही. दरअसल, उनकी रचनात्मकता चुक गयी है और वे इन-दिनों अपनी ही कविताओं के अनुवाद करके काम चला रहे हैं. ईश्वर उनको सद्बुद्धि दे. मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूं कि उनके बिना हिंदी-भाषा और हिंदी-कविता का कुछ नहीं बिगड़ेगा.
एक कवि को हक है निराश होने का

अशोक कुमार पांडेय
लेखक
मंगलेश डबराल जी के जिस एक स्टेटस से इतना बवाल मचा, उससे असहमति कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन उसके बहाने उनके खिलाफ घृणित तरीके से अभियान चलाया गया. उस कथन के दो हिस्से हैं.
पहला है- हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें खूब लिखा जा रहा है. लेकिन हिंदी में अब सिर्फ ‘जय श्रीराम’ और ‘बन्दे मातरम्’ और ‘मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ जैसी चीजें जीवित हैं- यह आपको फूको के ‘एंड ऑफ हिस्ट्री’ के विस्तारों के सदृश लग सकता है. लेकिन यह अपने उद्देश्यों में बिलकुल अलग है.
अब यह बताइए कि पिछले दस सालों में लिखी कौन सी कविता, कहानी या कौन सा उपन्यास है, जिसने हिंदी समाज पर कोई गहरा असर डाला या जिसको इरेज कर देने से समाज थोड़ा कंगाल हो जायेगा? इनमें खुद मंगलेश की लिखी कविताओं को भी शामिल कर लीजिए और इसके बरक्स उन नारों के प्रभाव को समाज पर देखिये, जिसका जिक्र किया गया है.
दूसरा हिस्सा निजी जैसा होते हुए सिर्फ निजी नहीं है- इस भाषा में लिखने की मुझे ग्लानि है. काश! मैं इस भाषा में न जन्मा होता- इसका पहला हिस्सा उस असफलता से जन्मा है, समाज में प्रभाव न डाल पाने की ग्लानि. वह सहज है. जो न हो किसी के भीतर और वह अपनी पुरस्कार-चर्चा-प्रकाशन जैसी उपलब्धियों से फूला-फूला घूमे, तो गर्व नहीं शर्म का बायस है.
दूसरा हिस्सा थोड़ा समस्यामूलक है. उस ग्लानि का अतार्किक विस्तार. पलायन. लेकिन एक वयोवृद्ध कवि को हक है निराश होने का. असहमति हो सकती थी, लेकिन जब ‘जिस थाली में खाना उसमें छेद करना’ और ‘हिंदी पर गर्व है’ जैसे जवाब आने लगें, तो समझिये चोला कोई हो आत्मा सीधे नागपुर से टेलीपैथी में है. सरकार/मालिक की रोटी खाओ तो सरकार/मालिक की बजाओ! ट्रेड यूनियन मुर्दाबाद. गर्व से कहो हम हिंदी हैं के भीतर छिपा हिंदू. यानी जो हिंदी भाषी नहीं हुए, उनको गर्व का हक नहीं, और कहीं वे भी गर्व में हैं, तो जय श्रीराम कहकर टूट पड़ने का विकल्प है ही!
कोई भी भाषा किसी एक व्यक्ति का टूल नहीं होती

शैलेश भारतवासी
प्रकाशक, हिंद युग्म प्रकाशन
मंगलेश डबराल के विवादित बयान को राजनीतिक चश्मे के बरक्स मैं उनकी उकताहट या गुस्से के तौर पर देखता हूं. यह कुछ ऐसा ही है कि हम जिस घर में जन्मे हों, उसमें अचानक अप्रिय और अमानवीय घटनाएं होने लगें और हमारा अपना ही उसमें शामिल हो, तब हम इसी तरह का अफसोस जाहिर करेंगे.
मंगलेश अपने संपूर्ण जीवन में हिंदी की ही साधना करते रहे हैं, तो यह मानना गलत नहीं होगा कि वे हिंदी को अपने जन्मदाताओं के बराबर ही प्रेम और सम्मान देते होंगे. साथ ही मुझे यह भी लगता है कि तमाम हिंदी प्रेमियों ने मंगलेश डबराल के बयान को बहुत ज्यादा ही महत्व दे दिया. यह बात हमें कभी नहीं भूलनी चाहिए कि कोई भी भाषा किसी एक व्यक्ति का टूल नहीं होती. वह तो एक पूरे समय, एक भूगोल और एक व्यापक जिंदा समाज की संपत्ति होती है.
मंगलेश जी ने अभी लिखे जा रहे लेखकों या उनकी रचनाओं पर जिस तरह के आरोप लगाये हैं, उनके जवाब में मेरी राय यही है कि भाषा जितनी अभी लिख रहे लेखकों की है, उतनी ही उनकी भी है. वे इस टूल का सही इस्तेमाल कर तथाकथित रूप से लिखी जा रही चीजों के खिलाफ एक बड़ा और मजबूत संसार खड़ा कर सकते हैं और हिंदी को बचा सकते हैं.
तत्कालीन सत्ता तमाम हथियारों का अपने अनुरूप इस्तेमाल करती ही है. हमेशा से यही होता आया है. ऐसे में सच्चा लेखक अपनी भाषा को ही विरोधरूपी हथियार भी बनाता है. इसलिए मंगलेश जी जैसे लेखकों को हिंदी भाषा का लेखक होने की खीझ के बरक्स अपने रचनाकर्म से इसका जवाब प्रस्तुत करना चाहिए.
बौद्धिक मुठभेड़ करनी होगी
वीरेंद्र यादव, आलोचक
हिंदी को धिक्कारना एक तरह से गंदे पानी के साथ किसी शिशु को फेंकने को चरितार्थ करना होगा. हमें हिंदी से नहीं, उन हिंदी बौद्धिकों से बौद्धिक मुठभेड़ करनी होगी, जो प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, यशपाल, मुक्तिबोध के सृजन से समृद्ध हुई हिंदी की प्रगतिशील और परिवर्तनकारी परंपरा को झुठला रहे हैं.

ज्यादती कर रहे हैं मंगलेश जी
ध्रुव गुप्त, साहित्यकार
इसमें कोई शक नहीं कि कविता, कहानी या उपन्यास में एक अरसे से कुछ बहुत ज्यादा सार्थक नहीं लिखा गया, लेकिन इन विधाओं की मृत्यु हो चुकी है यह कहना मंगलेश जी की ज्यादती है. संभव है, इस वक्तव्य के पीछे एक अरसे से खुद कुछ सार्थक नहीं रच पाने की उनकी अपनी कुंठा हो. एक वरिष्ठ कवि से रचनाकारों में हताशा फैलाने वाले ऐसे गैरज़िम्मेदार वक्तव्य की अपेक्षा किसी को नहीं थी. साहित्य के मूल्यांकन का यह उनका अपना पैमाना मानकर हम शायद भूल भी जाएं, लेकिन इस वक्तव्य के लिए उन्हें माफ नहीं किया जा सकता कि कि हिंदी के वर्तमान सांप्रदायिक परिदृश्य को देखते हुए उन्हें इस भाषा में लिखने में ग्लानि है और यह कि काश वे इस भाषा में नहीं जन्मे होते. यह सही है कि कुछ हद तक देश की वर्तमान प्रतिगामी और सांप्रदायिक राजनीति का असर हिंदी के लेखकों के एक वर्ग में देखा जा रहा है, लेकिन यह हिंदी साहित्य का सच नहीं है. हिंदी में अभी भी प्रगतिशील और धर्मपिरपेक्ष मूल्यों में विश्वास करने वाले लेखकों की संख्या बहुत बड़ी है. कहीं कुछ अधोगामी लेखन दिखता भी है तो इसमें हिंदी भाषा की क्या भूमिका है ? दुनिया भर में दक्षिणपंथ के उभार के साथ संसार की हर भाषा के कुछ लेखकों ने धारा के साथ चलना स्वीकार किया है. भर्त्सना ऐसे लेखकों की होनी चाहिए. अपनी भाषा के लेखकों को दृष्टि देने और संस्कारित करने के बजाय अपनी भाषा में जन्म लेने और लिखने में ही ग्लानि महसूस हो रही है तो हमें भी इस बात की ग्लानि है कि हम आपको आजकल क्यों पढ़ते और एक हद तक अपना आदर्श मानकर चलते रहे !

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