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पढ़ें, संवेदना से परिपूर्ण गीता दुबे की कहानी ‘पगला बुड्ढा’

गीता दुबे का जन्म- 18 अक्टूबर, जमशेदपुर. शिक्षा- एमएससी (वनस्पति विज्ञान), पूर्व शिक्षिका, वर्तमान में स्वतंत्र लेखन एवं सक्रिय समाज सेविका, एक कहानी संग्रह (एक फ्रेंड रिक्वेस्ट) प्रकाशित, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, यात्रा वृतांत प्रकाशित. संपर्क : 204, नील हाउस, 12, रोड नंबर-4, सी एच एरिया, जमशेदपुर, झारखंड, मोबाइल – 9334833388 पगला बुड्ढा दो […]

गीता दुबे का जन्म- 18 अक्टूबर, जमशेदपुर. शिक्षा- एमएससी (वनस्पति विज्ञान), पूर्व शिक्षिका, वर्तमान में स्वतंत्र लेखन एवं सक्रिय समाज सेविका, एक कहानी संग्रह (एक फ्रेंड रिक्वेस्ट) प्रकाशित, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, यात्रा वृतांत प्रकाशित. संपर्क : 204, नील हाउस, 12, रोड नंबर-4, सी एच एरिया, जमशेदपुर, झारखंड, मोबाइल – 9334833388

पगला बुड्ढा

दो दिनों से लगातार बारिश होने के कारण मोहल्ले की टूटी सड़कों पर पानी भर आये थे. लोगों ने उसपर ईंट रखकर आने-जाने का रास्ता बना लिया था. आज भी सुबह से रिमझिम-रिमझिम हो रही है, लोग जरूरी काम से ही बाहर निकल रहे हैं लेकिन मंगरू की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया है. वह एक गमछा कमर पर और एक गमछा बदन पर लपेटे और प्लास्टिक से सिर को ढांके हुए सब्जियों के पौधों के बीच घुसकर सब्ब्जियां तोड़ रहा था.

सुबह से वह चार टोकरी नेनुआ, तीन टोकरी कुंदरू निकाल चुका था अब बैंगन निकाल रहा था, तभी पड़ोस की वर्मा चाची हाथ में झोला लिये आयीं और मंगरू के टीन के दरवाजे को पीटते हुए बोलीं –

मंगरू, ओ मंगरू दरवाजा खोल! अरे खोल ना दरवाजा, थोड़ा नेनुआ दे दो, इस पानी में बाजार जाने का मन नहीं हो रहा है, खोल ना रे!
तब तक वहां सिंह चाची भी आ पहुंची और कहने लगीं- अरे मंगरुआ खोल रे!
कुछ सब्जी दे दो.. खोल ना रे!
मंगरू ने उधर से गुस्से में चिल्ला कर कहा- नहीं खोलेगा, नहीं खोलेगा साला! तुमलोग को सब्जी नहीं देगा, सब सब्जी मेरा मालिक का है… तुमलोग भाग जाओ यहां से.
सिंह चाची भी चिल्ला कर बोलीं –
अरे चिल्ला काहे को रहा है! बाजार भाव से चार पैसा ज्यादा ले लेना!
बोला ना नहीं देगा, तो नहीं देगा- मंगरू उसी तरह चिल्लाकर बोला.
वर्मा चाची- चलिए जी मंगरुआ बड़ा स्वामी भक्त है, वह हमलोगों को सब्जी नहीं देगा.
मंगरू की उम्र 45 से 50 की रही होगी लेकिन कड़ी मेहनत और अभाव ने उसे 60 का बना दिया था. पूरे शरीर पर एक पाव मांस भी अतिरिक्त नहीं था. झुकी कमर, आंखों पर गोल-गोल चश्मा जिसे वह धागों के सहारे कान में फंसा लेता और गुस्सा नाक की नोंक पर. ऐसा ही था मंगरू. राम प्रसाद शर्मा की आठ कट्ठा जमीन मोहल्ले के बीच में खाली पड़ी थी. उन्होंने सोचा कि क्यों न इसमें सब्जी उगाई जाए जिससे घर में खाने के लिए ताजी सब्जी भी मिल जाएगी और कुछ अतिरिक्त आमदनी भी हो जाएगी.

उन्होंने जमीन को ऊंची चाहरदीवारी देकर घेरवा दिया था और एक कमरा बनवा दिया था. किसी ने शर्मा जी को बताया था कि जमशेदपुर से सटे सारडा एक आदिवासियों का गांव है जहां के युवक बेरोजगार हैं और काम की तलाश में हैं. शर्मा जी सारडा गांव गए और वहां उनकी भेंट मंगरू से हुई, उन्होंने भांप लिया कि मंगरू मेहनती और ईमानदार है और वह काम की तलाश में है, शर्मा जी उसे अपने साथ लेते आए और तब से आज 30 वर्ष हो गए मंगरू वहीं रह रहा है. साल में एक बार वह टुसू-पर्व में अपने गांव जाता था लेकिन जब से उसकी घरवाली चल बसी, उसने गांव जाना भी छोड़ दिया. बस सारा दिन अपने खेतों में ही उलझा रहता. कभी उन्हें कोड़ता, कभी सींचता कभी घंटों निहारता, तो कभी पौधों को पुचकारता, सहलाता, उसकी समस्त दुनिया उन खेतों में ही समाहित थी.

समय बीतता गया. तीस-बत्तीस वर्षों में काफी कुछ बदल गया. लोगों की मानसिकताएं बदलने लगीं, बिल्डरों के बीच फ्लैट बनाने की होड़ लग गयी, उन्होंने राम प्रसाद शर्मा से भी वह जमीन जिस पर मंगरू सब्जी उगाता था बेचने का प्रस्ताव रखा, शर्मा जी राजी हो गए और उन्होंने अपनी वो आठ कट्ठा जमीन बिल्डर को बेच दी.
सुबह के दस बज रहे थे. उस टीन के दरवाजे की कुण्डी बस एक ही बार बजी थी और मंगरू खेत के कोने से दौड़ा-दौड़ा आया, वह समझ गया कि उसके मालिक आए हैं लेकिन इस बार उसके मालिक अकेले नहीं बल्कि और चार लोगों के साथ आए थे. मंगरू उन्हें देखते ही कहने लगा-
मालिक देखिए कितना सब्जी निकला है. ‘हमको मालूम था कि आप आएगा इसलिए हम पहले ही सब्जी निकाल दिया.’
शर्मा जी ने कहा– हां वो तो ठीक है लेकिन अब कुछ लगाने कि जरुरत नहीं है, अब ये सब छोड़ दो.
मंगरू ने सहमते हुए धीरे से पूछा- ‘काहे मालिक हमसे कवनो गलती हो गया का?’
“अरे नहीं रे मंगरू, बस बहुत कर लिया ये काम. अब चल कर मेरे घर पर पड़े रहना, दस-बारह गमला है उसी को कोड़ते रहना और लोगों को चाय-पानी पहुंचाना.” मंगरू कुछ समझा नहीं.
कुछ ही दिनों के बाद एक दिन बिल्डर बुलडोजर के साथ वहां पहुंच गया, साथ में शर्मा जी भी थे. शर्मा जी ने मंगरू से कहा- चल मंगरू अपना सामान बांध ले और चल मेरे साथ.
‘नहीं मालिक हम कहीं नहीं जाएगा, हम यहीं रहेगा’- मंगरू ने अपनी इच्छा जाहिर करते हुए कहा.
“अरे मंगरू चल, मेरे घर पर पड़े रहना”- शर्मा जी ने फिर कहा.
‘नहीं मालिक’’- मंगरू ने भी फिर वही बात दोहराई.
शर्मा जी ने फिर उसे समझाते हुए कहा – “देख मंगरू अब इस जमीन पर घर बनेगा, तो तुम यहां कैसे रहोगे? चल सामान बांध ले.”
मंगरू ने शर्मा जी को बेबस भरी आंखों से देखा मानो कह रहा हो- “मालिक आपके पास रहने के लिए एक बड़ा घर तो है ही, फिर आप यहां घर बनवाना क्यों चाहते हैं?” और वह धीरे-धीरे एक मोटरी में अपना सामान बांधने लगा. तभी बुलडोजर की तेज आवाज ने उसे चौंका दिया. बुलडोजर ने उसकी चाहरदीवारी गिरा दी थी, वह अपनी मोटरी छोड़ उस ओर भागा और अपने को रोक न पाया.
“ऐ… ऐ… क्या करता है, रोको, रोको, मालिक रोकिए इन लोग को…” उसने एक पत्थर उठाते हुए गुस्से में कहा-
‘साला हम तुमलोग को छोड़ेगा नहीं’… फिर दौड़कर शर्मा जी के पास गया और चिल्लाकर कहने लगा- मालिक रोकिए, रोकिए!’
शर्मा जी ने सहानुभूति जताते हुए कहा- काहे चिल्लाता है रे मंगरू, चल जा, जाके गाड़ी में बैठ जा. तब तक दूसरी तरफ की भी दीवार ढह चुकी थी. आंखों के सामने अपने पौधों को कुचलते देख लाचार मंगरू के आंसू छुप न सके, चश्मा के नीचे से उतरकर उसके पिचके गालों पर ठहर गए थे. उसकी नजरें अपने कुचले पौधों पर ही गड़ी रहीं. वह एक बुत बनकर वहीं खड़ा रहा, कहीं शून्य में ताक रहा था. शर्मा जी ने उसके करीब जाकर जोर से आवाज लगाई-
“मंगरू, ऐ मंगरू चल अपनी मोटरी उठा और गाड़ी में जाकर बैठ,” मंगरू ने अपनी मोटरी उठाई और जाकर गाड़ी में बैठ गया.
मंगरू अपने मालिक के घर पहुंच चुका था. उसी तरह शून्य में ताक रहा था. शर्मा जी की पत्नी उसे आंगन में बने एक कमरे में ले गई, उस कमरे के एक तरफ घर की कुछ फालतू चीजें पड़ीं थीं और एक तरफ कुछ खाली जगह थी, वहीं उन्होंने मंगरू से कहा कि वह अपना सामान रख दे. कुछ ही देर में शर्मा जी की पत्नी थाली में मंगरू के लिए खाना लेकर आई और बोली–
‘ले मंगरू इसे खा ले और सो जा…’ लेकिन मंगरू को देखकर ऐसा लगा मानो उसने कुछ सुना ही न हो.
सुबह शर्मा जी की पत्नी ने मंगरू को चाय लेने के लिए बहुत बार आवाज लगाई लेकिन उधर से कोई जवाब न आने पर वह स्वयं चाय लेकर मंगरू के पास गई, उन्होंने देखा कि पीछे का दरवाजा खुला है और न मंगरू वहां है और न ही उसकी मोटरी.
मंगरू का मन बेचैन था, वह सुबह होते ही अपने पौधों को देखने उस जगह भागा जहां उसने 30 वर्ष सब्जी उगाए थे. उन्हें अपनी रगों से सींचा था. लेकिन उसने देखा कि उसके पौधों का कहीं नामोंनिशान नहीं है बल्कि उसका एक कमरे का घर, जिसे इन 30 वर्षों में उसने अपने आप को उसका मालिक मान बैठने की भूल कर ली थी, वह भी ढह चुका है.
इस घटना को हुए आज चार वर्ष बीत गए. राम प्रसाद शर्मा के उस जमीन पर एक आलीशान, खूबसूरत फ्लैट-काम्प्लेक्स बनकर तैयार हो गया है. लोग उसमें रहने भी लगे हैं, महंगी-महंगी कारें सामने लगी रहतीं हैं लेकिन उसी फ्लैट-काम्प्लेक्स के मोड़ पर एक कोने में मंगरू दुबका बैठा रहता है. एक झोले में दिन भर पत्थर इकठ्ठा करता है और बुदबुदाता रहता है-
"साला रात में जब सब सो जाएगा तब हम पत्थर से इस बिल्डिंग को गिरा देगा”.
बच्चे उसे छेड़ते हैं- " क्या रे पगला बुड्ढा… ओ पगला बुड्ढा…. तुम पत्थर से बिल्डिंग गिराएगा! हा—हा—हा—जरा पत्थर से बिल्डिंग गिरा कर दिखाओ तो— हा–,हा—पगला बुड्ढा, बिल्डिंग गिरा कर दिखाओ तो!" हा –हा–हा—ये बुड्ढा पगला है, कहता है पत्थर से बिल्डिंग गिराएगा. हा– हा–हा…
बच्चे सच ही कहते हैं, मंगरू अब पगला गया है. वह सबके लिए पगला बुड्ढा बन गया है.

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