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Friday, March 29, 2024

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पढ़ें, पुरुषवादी सोच के दंभ को अस्वीकारती प्रितपाल कौर की कविताएं

प्रितपाल कौर एक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक और कवयित्री हैं. इनका जन्म 5 अगस्त 1961 में श्रीगंगानगर और पढ़ाई उदयपुर, जोधपुर और बीकानेर से हुई. इन्होंने भौतिक शास्त्र में स्नातकोत्तर और एमएड किया है. करियर की शुरुआत आकाशवाणी से कैजुअल एनाउंसर के तौर पर किया. लेखन भी लगभग साथ ही शुरू हुआ. आकाशवाणी से वार्ताएं प्रसारित, […]

प्रितपाल कौर एक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक और कवयित्री हैं. इनका जन्म 5 अगस्त 1961 में श्रीगंगानगर और पढ़ाई उदयपुर, जोधपुर और बीकानेर से हुई. इन्होंने भौतिक शास्त्र में स्नातकोत्तर और एमएड किया है. करियर की शुरुआत आकाशवाणी से कैजुअल एनाउंसर के तौर पर किया. लेखन भी लगभग साथ ही शुरू हुआ. आकाशवाणी से वार्ताएं प्रसारित, ड्रामा आर्टिस्ट रही. इसी दौरान कहानियां और कविताएं प्रमुख राष्ट्रीय व स्थानीय पत्रिकाओं और अख़बारों में प्रकाशित हुईं. जिनमें प्रमुख हैं, हंस, कथादेश, जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, सीमा संदेश और दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएं. बीसवीं सदी के अंतिम दशक में टेलीविज़न की दुनिया में कदम रखा.एनडीटीवी से बतौर संवाददाता छह साल तक संबंद्ध रही. संप्रति 6D NEWS वेबसाइट में Consulting Editor व स्वतंत्र पत्रकार. साथ ही उपन्यास, कहानी और कविता लेखन जारी है.

प्रितपाल कौरमहिलाओं की सामाजिक स्थिति से प्रतिकार करते हुए कविताएं लिखीं, जो पुरुषवादी सोच के दंभ को अस्वीकार करती है. इनकी कविताओं में नारी अपने शर्तों पर जीने की कोशिश करती है, तो आइए पढ़ें:-
आज़ाद हवा
मैं एक खुली खुली हवादार
शर्ट पहन कर
घर से बाहर
सैर को निकलना चाहती हूं
किसी ऐसी सड़क पर जहां
ट्रैफिक का जैम न लगा हो
जहां हॉर्न शोर न मचाते हों
जहां बच्चे भीख न मांगते हों
कोई नन्ही चालाक आंखों वाली लड़की
मैले कुचैले कपड़े पहन कर
डफली की धुन पर
लोहे के गोले से करतब ना दिखाती हो
कोई ट्रांस जेंडर
खूबसूरत औरत के वेश में
मनों मेकअप लादे
हक के साथ
मुझसे सौ रुपये के नोट की मांग न करता हो
मैं वही खुली खुली सी हवादार शर्ट में
चलते हुए सड़क पार कर लेना चाहती हूं
कुछ इस तरह कि
मुझे किसी गाड़ी से कुचले जाने का डर न हो
सड़क पर के गढ्ढे में फंस कर
मैं औंधे मुंह गिर न पडूं
उसी सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर
चलने की कुछ जगह बची हो
फुटपाथ की सभी टाईलें साबुत हों
चलते हुए पैर में मोच न आये
कोई शोहदा खड़ा हुआ सड़क के किनारे
सीटियां बजा कर
मेरे समेत
ज़माने भर की औरतों को
शर्मिंदा न करता हो सरेआम
मैं इसी तरह खुली खुली हवादार शर्ट पहन कर
उस बाज़ार से हो कर गुज़र जाना चाहती हूं
जहां हर चीज़ की कीमत
मेरी जेब में रखे नोटों से कुछ कम हो
जहां लोग आपा-धापी न करते हों
जहां हर चीज़ ऐसी हो
जो हर जन खरीद सकता हो
मैं यही खुली खुली हवादार शर्ट पहन कर
हर सुबह वह अखबार पढ़ना चाहती हूं
जिसमें बच्चों के बलात्कार न लिखे हों
मासूमों
बेगुनाहों
और गुनाहगारों
के क़त्ल पहले पन्नों पर सजे न हों
और हर शाम उसी खुली खुली हवादार शर्ट को पहन कर
मैं घर लौटूं
तो टेलीविज़न पर
फूल खिले हों
नौजवान और बूढ़े प्रेम गीत गा रहे हों
बच्चे घरों में, पार्कों में खेल रहे हों
सारे खबर नवीस किसी अनजान टापू पर
ज़िंदगी की शाम का जाम पीते
वही खुली खुली हवादार शर्ट पहने
टहलते हुए
किसी मशहूर ढाबे के बने
भरवां परांठे खा रहे हों.
हम सब रुदाली
इतने रुदन बिखरे हुए हैं हवाओं में
इतने रोग
इतनी जबरदस्तियां
जिस्म की
मन की
रूह के इतने-इतने
बलात्कार
इतने नौजवान चेहरे
भयानक हो चुके हैं
जिन चेहरों पर ताब होती
नूर की
दिलों की बात समझने की औकात की
वे मुरझाये हुए
खड़े हैं रास्तों पर
हाथों में थामे
बेरंग हो चुके
ढीठ आग्रह की पर्चियां
इन्हें परवाह नहीं कि
इन्हें किसी की मार पड़े
या फटकार
ये सिर्फ और सिर्फ
अपने जिस्मों की मांग पर
कुर्बान होने को
तैयार बैठे हैं चौराहों पर
और जिबह करते हैं
नित नए जज़्बात
हालात इनके हाथों में पड़ कर
बंदूक की गोली की तरह
छूट कर समा जाते हैं
हर जायज सवाल या आवाज़ उठाने वाले
या उठाने वाली
की छाती में
ये सोचते होंगे
कि ये ख़त्म कर देंगे आवाजें
और
इनकी तार-तार हुई
आत्माओं का नंगा नाच
ढांप लेगा पूरे समूह को
रो-रो कर कोई कब तक बचा पायेगा अस्मिता
चीख-चीख कर कहां तक
पहुंच पायेगी बेसबब लाशों की बदबू
एक दिन थक कर
समूह के रुदन
गले में ही रुक जायेंगे
एक दिन कोई एक कहेगा
फिर सब कहेंगे
कि हम बहुत रो चुके
अब हम नहीं बोलेंगे
अब हम भी हवा में खून के कतरे छिड़केंगे
उस दिन के बाद
हंसी भी चश्मदीद गवाह की तरह
घर बैठ जायेगी छिप कर
कोई नहीं रो पायेगा
उस दिन के बाद
हम सब उस दिन के बाद से
रुदाली हो जायेंगे.
औरत और मर्द
ये तुम्हें हर वक्त मेरा औरत होना याद कैसे रहता है ?
हर पल जब तुम मुझे देखते हो
तुम्हारे जिस्म के तार
उत्तेजित हो जाते हैं
मैं तुम्हारी उत्तेजना तुम्हारी आंखों में
तुम्हारे आसपास की हवा में
तुम्हारी द्विअर्थी बातों में
तुम्हारे लंगोट की ढीली पड़ती गांठों में
फौरन ताड़ लेती हूं
तुम जब भी प्रेम से मुझे गले लगाते हो
तुम्हारा गीला बोसा
तुम्हारी बेजा कामनाओं की पोल
खोल कर
तुम्हारे औचक हुए उभारों से
मुझे कोंच डालता है
तुम कभी आनंद से
मोहब्बत से
आदर भरे नेह से
मुझे स्नेह क्यों नहीं कर पाते?
जैसे कि मैं अपने दोस्तों से गले मिल कर
प्रेम में भर उठती हूं
तुम किसी रोज़ मेरी बगल में लेट कर
मुझे सहला कर
कुछ पलों के लिए ही सही
ये भूलने में मेरी मदद नहीं कर सकते कि
हम अलग अलग हैं?
कि मैं औरत हूं
और तुम मर्द …
तुम क्यों विशुद्ध प्यार से भरकर
एक बार
सिर्फ एक बार
मेरा मन रखने ही को सही
पुरूष क्यों नहीं बन पाते?
तुम्हें हर वक्त मर्द बने रहने की
ठेठ मर्दाना
जिद्द क्यों सवार रहती है?
अश्लीलता का जश्न
उसकी बातों में जो अश्लील शब्द थे
वे हवा में बिखर गए थे
जमाने की
उनमें इतनी कूवत नहीं थी
जो अपने पैरों चलती
किसी भी जमाने की
किसी भी मिजाज की
मां, बहन या बीवी को आहत कर सकें
अलबत्ता एक औरत
जो शर्म का लबादा ओढ़े
उसके घर के किसी कोने में
दमघोटूं धुंए से जंग करती
नरम गरम गोल गोल
रोटियां सेंक रही थी उसकी खातिर
लहूलुहान पड़ी देखी थी
मैंने
उसकी मर्दानगी के चूल्हे के पास
मैंने उसको झिंझोड़ा था
मुझे दया आनी चाहिए थी
उसकी बदहाली पर
मगर मैंने उसके खून को
उसी के आंसुओं की ताब से सुखाया था
उसका दुपट्टे से ढंका सर
उघाड़ कर
मैंने उसकी कजरारी
मारक आंखों में बसे सन्नाटे को
फूंक मार कर बुझा दिया था
वो उठी थी
चूल्हे पर पक रही दाल
उसने उढेल दी थी
सुलगते अंगारों पर
फनफनाते हुए धुएं के साथ ही
उसकी रूह भी
कब्र से निकल आई थी
उस दिन
बहुत सी औरतों ने मिल कर
अश्लीलता का जश्न मनाया था
खुद का खुद होना
मैं उस शाम की तरह गुनगुनाती हूं
जिसने रात के पहलू में लेट कर
सितारों से टंकी छत के नीचे
ठंडी हवा के झोंके को ओक में लेकर
गटागट पी लिया है
मैं नहीं जानती कि मेरे
इस सपने की क़ीमत क्या है
और अपना कौनसा क़ीमती
गहना बेच कर मुझे
इसके लिए धन जुटाना होगा
सपने तो मैंने देखने छोड़ें नहीं
मगर इस राह चलते कब यूंही
हवा से कौर जुटाने का हुनर
मेरे हाथों से फिसल कर
गिर गया और टूट कर बिखर गया
मेरे क़दमों में
मैं बेलौस तब भी
अपने ही क़दमों में बैठी
इन टुकड़ों को लहू टपकाती अंगुलियों से समेटती
शाम की रंगीन धुन में
रात की बेहोशी को पिरो रही हूं
गुनगुनाती हूं शाम की ही तरह
रात के पहलू में लेट कर
और दम भरती हूं
खुद ही खुद
अपने होने का
क्योंकि इसके सिवा मुझे
और कुछ आता ही नहीं
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