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World Tribal day 2025 : विश्व के सबसे पुराने लोग हैं आदिवासी, जिन्हें एथनिक समाज कहा जाता है. एथनिक समाज वैसे लोगों के समूह को कहा जाता है कि जिनकी अपनी पहचान, संस्कृति, भाषा, रीति-रिवाज और परंपराएं होती हैं, जो उन्हें मुख्यधारा के समाज से अलग बनाती हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1994 में इस एथनिक समाज को अपनी विशिष्ट पहचान के साथ रहने देने और उसकी सुरक्षा के लिए विश्व आदिवासी दिवस (World’s Indigenous Peoples day)मनाने की शुरुआत की थी. आज भी जब विश्व आदिवासी दिवस का आयोजन होता है, तो इस बात पर बहस जरूर होती है कि क्या आदिवासियों को उनका हक मिल रहा है या उन्हें अपनी विशिष्ट पहचान से दूर किया जा रहा है?
आदिवासियों का सबसे बड़ा मुद्दा है जल-जंगल-जमीन
आदिवासी समाज सामूहिकता में जीता है और इसी वजह से उनके सारे रीति-रिवाज समाज आधारित हैं, चाहे जन्म हो, मृत्यु् हो या फिर कोई पर्व-त्योहार. आदिवासी समाज के लोगों की अपनी भाषा, संस्कृति है. वे अपने पारंपरिक पहनावे को पसंद करते हैं और उनका खान-पान भी अलग है. उनकी धार्मिक मान्यताएं भी अलग है. सबसे बड़ी बात यह है कि आदिवासी अपने इन विशिष्ट पहचान के साथ जीना पसंद करता है और वह खुश है. समस्या यह है कि आदिवासियों को उनकी पहचान के साथ जीने से रोका जा रहा है, उन्हें अपमानित करने की कोशिश हो रही है और इसी वजह से आज का आदिवासी मुखर है और अपने अधिकारों के लिए मांग कर रहा है. सामाजिक कार्यकर्ता वाल्टर कंडुलना कहते हैं कि मुझसे अगर पूछा जाए कि आदिवासियों के मुख्य मुद्दे क्या हैं तो मैं यह बताना चाहता है कि आदिवासियों का एक ही मुद्दा है जल-जंगल और जमीन सीधे-सीधे कहें तो धरती. इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द उसके जीवन की सारी बातें घूमती हैं, चाहे हम बात संस्कृति की करें या फिर समुदाय की बात करें. वाल्टर कंडुलना कहते हैं कि पेसा कानून के तहत आदिवासियों को अपने जल-जंगल-जमीन पर अधिकार मिल गया है. यह कानून आदिवासियों के पारंपरिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को सुरक्षित करता है,लेकिन यह कानून आज तक लागू नहीं हो पाया है. इसकी वजह यह है कि इस कानून को लागू करने के लिए जो नियमावली राज्यों को बनाना चाहिए वह अबतक बनकर तैयार नहीं हुआ है. पेसा कानून केंद्र सरकार ने पास किया है, लेकिन यह लागू होगा पंचायतों में जो राज्य के अधीन है, इसलिए पेसा कानून को पंचायतों में लागू करवाने के लिए जरूरी नियम की जरूरत है, जैसे कि ग्राम सभा की बैठक कब और कैसे होगी? खनिज संपदा पर ग्राम सभा को किस तरह का अधिकार मिलेगा इत्यादि. स्थिति यह है कि आदिवासी अपनी पहचान के साथ जिएं इसके लिए सरकार ने नियम तो बना दिए हैं, लेकिन वे लागू कैसे होंगे इसपर कोई काम नहीं हुआ है, जिसकी वजह से आदिवासियों की जमीन पर गैरकानूनी कब्जा हो रहा है. आदिवासियों के पास अगर जमीन नहीं होगी, तो उसकी पहचान भी खत्म हो जाएगी.
आदिवासियों के सामने पहचान का संकट

आदिवासी के सामने आज भी पहचान का संकट बना हुआ है. इस बारे में बात करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडन डुंगडुंग कहते हैं कि आज के समय में आदिवासी पहचान और उनकी अस्मिता का मुद्दा बहुत बड़ा है. जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा की बैठकों में यह कहा था कि हम आदिवासी हैं और हमें दूसरी पहचान नहीं चाहिए. हमें दूसरे शब्द नहीं चाहिए. शुरुआत में संविधान के मसौदे में आदिवासी शब्द था, लेकिन बाद में उसे हटा दिया गया और अनुसूचित जनजाति कर दिया. आदिवासी कोई जाति, वर्ग या जेंडर नहीं है, बल्कि वह एक एथनिक ग्रुप है. एक नस्लीय समाज है. लेकिन इसे जाति और वर्ग में शामिल करने की कोशिश होती है. जबकि सच्चाई यह है कि जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी शब्द को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित कर दिया था, बावजूद इसके आदिवासी को कई अन्य नामों से पुकारा गया है. आदिवासियों के एथनिक पहचान को कायम रखना एक बड़ा मुद्दा है. आदिवासियों के सामने स्वायत्तता का भी एक मुद्दा है. आदिवासी अपने समाज को अपने तरीके से चलाना चाहते हैं, इसके लिए पेसा कानून बना है, लेकिन इतने साल बाद भी झारखंड में पेसा कानून लागू नहीं हो पाया है. झारखंड हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद भी यह संभव नहीं हो पाया है. राज्य और जिले में तो आदिवासियों के हिसाब से शासन व्यवस्था नहीं चल रही है, कम से कम पंचायतों में तो आदिवासियों को उनका हक मिले. जमीन का मुद्दा भी आदिवासियों का बड़ा मुद्दा है. जमीन का मसला भी आदिवासियों का बड़ा मसला है. जमीन हमारे पुरखों ने हमें दिया है, उसपर किसी दूसरे का अधिकार कैसे हो सकता है. ब्रिटिश हुकूमत के समय हमारे पूर्वजों ने उनका पट्टा लेने से मना कर दिया था. उनका कहना यह था कि यह जमीन हमारे पूर्वजों ने दी है तो हम आपका पट्टा क्यों लेंगे. जमीन के लिए आदिवासी को हमेशा संघर्ष करना पड़ा है, उदाहरण स्वरूप कोयलकारो परियोजना है, जहां आदिवासियों को अपनी जमीन के लिए संघर्ष करना पड़ा था. आदिवासी जमीन के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है. विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन जा रही है, साथ ही गैरकानूनी तरीके से भी उनके जमीन पर कब्जा हो रहा है. सच्चाई यह है कि अगर जमीन नहीं होगी, तो आदिवासी नहीं रहेगा और ना ही उनकी सभ्यता और संस्कृति रहेगी.
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संस्कृति के नाम पर महिला अधिकारों की उपेक्षा ना हो
महिला अधिकार कार्यकर्ता और प्रबुद्ध नेत्री रजनी मुर्मू कहती हैं कि आदिवासियों की संस्कृति को बचाना आदिवासी दिवस का उद्देश्य नहीं है, बल्कि आदिवासियों को उनकी संस्कृति और जीवनशैली के साथ जीने देने का अधिकार मिले इसके लिए आदिवासी दिवस मनाया जाता है. पहले यह माना जाता था कि आदिवासी जिस तरह से जीते हैं और जिस तरह का उनका खानपान या पहनावा है, वो खराब है, सोच की इस स्थिति को बदलने और आदिवासियों को अपने जीवन में अपने कंफर्ट के अनुसार जीने देने के लिए आदिवासी दिवस की शुरुआत हुई थी. गैर आदिवासी, आदिवासियों को उनके खान-पान और पहनावे से जज ना करें और उन्हें अपने कंफर्ट जोन में रहने दे, यह आदिवासी दिवस का उद्देश्य है. सभ्यता संस्कृति बचाने के नाम पर गलत चीजों को बचाना सही नहीं होगा. आज समाज में रूढ़ी प्रथा को बचाने की जब भी बात होती है, तो वहां महिलाओं के अधिकारों पर हमला होता है, इसलिए इस स्थिति को बदला जाना चाहिए.
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विश्व आदिवासी दिवस कब मनाया जाता है?
विश्व आदिवासी दिवस हर साल 9 अगस्त को मनाया जाता है.
विश्व आदिवासी दिवस मनाने की शुरुआत कब हुई थी?
विश्व आदिवासी दिवस मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने 1994 में की थी.

