–प्रोफेसर सुब्रत मुखर्जी-
(सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय)
Vande Mataram 150 Years : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरणास्रोत ‘वंदे मातरम’ के 150 वर्ष पूरे होना सचमुच एक ऐतिहासिक अवसर है. बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1875 में यह गीत लिखा था, जो 1882 में प्रकाशित उनके बहुचर्चित उपन्यास ‘आनंदमठ’ का हिस्सा बना. यह गीत इतना प्रसिद्ध हुआ कि उस दौर में असंख्य भारतीयों ने, जिनमें ज्यादातर क्रांतिकारी और देशभक्त थे, इसे अपनाया और लगभग आधी सदी तक यह स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरणास्रोत बना रहा. रवींद्रनाथ ठाकुर ने सबसे पहले 1896 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में इसे गाया था. रवींद्रनाथ के गायन के बाद ‘वंदे मातरम’ के बारे में बंगाल और बंगाल से बाहर लोगों की उत्सुकता जगी.
महात्मा गांधी इसे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक मानते थे. बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और महर्षि अरविंद ने भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता और आध्यात्मिक उन्नति के लिए ‘वंदे मातरम’ का प्रचार-प्रसार किया था. पंजाब केसरी लाला लाजपत राय ने लाहौर से प्रकाशित अपने जर्नल का नाम ही ‘वंदे मातरम’ रखा था. महर्षि अरविंद के मुताबिक ‘वंदे मातरम’ सिर्फ राजनीतिक उद्घोष नहीं, बल्कि आध्यात्मिक विचारों का भी उद्बोधन था. उन्होंने ‘वंदे मातरम’ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था.
‘वंदे मातरम’ सिर्फ एक गीत नहीं, एक नारा भी था. वर्ष 1905 में बंगाल के विभाजन के विरुद्ध ‘वंदे मातरम’ एक मंत्र का काम कर रहा था. बंग-भंग के खिलाफ कलकत्ते में बुलाये गये एक आयोजन में लगभग 40,000 लोग जुटे थे और उपस्थित लोगों ने ‘वंदे मातरम’ का उद्घोष किया था. बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के समय ‘वंदे मातरम’ ब्रिटिशों की शोषणकारी आर्थिक नीति के विरोध का प्रतीक बन गया था. इसे देखते हुए अंग्रेजों ने इस पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन इससे इसकी लोकप्रियता ही बढ़ी. बंग-भंग के लगभग तीन दशक बाद दक्षिण भारत के गुलबर्गा में आंदोलनकारी छात्रों ने ब्रिटिशों की क्रूर नीतियों के खिलाफ ‘वंदे मातरम’ को हथियार बनाया था. ‘वंदे मातरम’ के इतिहास के बारे में जानना दिलचस्प है. जब इसकी लोकप्रियता बढ़ी और राष्ट्रवादियों की तरफ से इसे राष्ट्रगान बनाने की मांग की जाने लगी, तब सुभाषचंद्र बोस ने रवींद्रनाथ से उनके विचार जानना चाहा था.
सुभाषचंद्र बोस को लिखी अपनी चिट्ठी में कविगुरु ने कहा था, ‘वंदे मातरम देवी दुर्गा की आराधना से जुड़ा है. यह इतना स्पष्ट तथ्य है कि इस मामले में किसी बहस की गुंजाइश ही नहीं है. यह भी तथ्य है कि बंकिमचंद्र ने देवी दुर्गा को बंगाल से जुड़ा हुआ बताया है. लेकिन कोई भी मुस्लिम देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में स्वीकार नहीं करेगा. इस बार कई पत्रिकाओं ने दुर्गा पूजा से संबंधित अपनी रिपोर्टों में वंदे मातरम को उद्धृत किया है. वंदे मातरम बंकिमचंद्र के उपन्यास आनंदमठ में तो बिल्कुल उपयुक्त है. लेकिन संसद चूंकि सभी धार्मिक समूहों का मंच है, इसलिए वहां वंदे मातरम उपयुक्त नहीं होगा’.
सुभाषचंद्र बोस ने इस मामले में सार्वजनिक तौर पर चुप्पी बनाये रखी, जो राष्ट्रवादियों को बेहद चुभ रही थी. रवींद्रनाथ ने लोगों की भावनाओं को देख कर कहा कि वह इस मामले में कांग्रेस नेतृत्व से चर्चा करेंगे. वर्ष 1937 में, कलकत्ते में आयोजित कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में, जहां महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा आचार्य कृपलानी की मौजूदगी थी, यह निर्णय लिया गया कि कांग्रेस के सत्र में ‘वंदे मातरम’ के शुरुआती दो पदों को गाया जायेगा. इसके शुरुआती दो पद संस्कृत में और शेष पद बांग्ला में हैं. वर्ष 1938 में जब बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की जन्म शताब्दी धूमधाम से मनायी जा रही थी, तब ‘वंदे मातरम’ के मुद्दे को फिर उठाया गया, ताकि पूरे गीत को राष्ट्रगान बनाया जा सके. लेकिन सुभाषचंद्र बोस इसके पक्ष में नहीं थे, ऐसे में, कांग्रेस कार्यसमिति का पहले लिया गया फैसला ही बरकरार रहा.
देश 15 अगस्त, 1947 को जब आजाद हुआ, तब प्रसिद्ध गायक पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने आकाशवाणी से ‘वंदे मातरम’ गया था. बाद में संविधान सभा ने 24 जनवरी, 1950 को रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगान और बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के ‘वंदे मातरम’ को भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रीय गीत के तौर पर अंगीकृत किया था. उस अवसर पर राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन’ के बराबर ही सम्मान दिया जायेगा. हालांकि ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रगान का दर्जा देने और इसे पूरा गाये जाने की मांग बाद में भी उठायी जाती रही. इस पर 25 अगस्त, 1948 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वंदे मातरम और जन-गण-मन के बीच बेवजह विवाद पैदा किया गया है.
वंदे मातरम निश्चित रूप से प्रधान राष्ट्रगीत है, जिसकी विराट ऐतिहासिक परंपरा है. यह स्वतंत्रता के लिए हमारे संघर्ष से जुड़ा है. उसका यह कद बना रहने वाला है और कोई भी गीत उसकी जगह नहीं ले सकता. यह स्वतंत्रता के जज्बे और उसकी मार्मिकता को तो प्रतिध्विनित करता है, लेकिन उस संघर्ष की परिणति का शायद उतना शानदार प्रतिनिधित्व इसमें नहीं है.’ कांग्रेस ने रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगान के रूप में इसलिए स्वीकृत किया, क्योंकि यह समावेशी था और इसमें भारत के बहुलतावाद को रेखांकित किया गया था.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

