Rajendra Mathur : मूर्धन्य पत्रकार राजेंद्र माथुर के लेखन की समयसीमा तय नहीं हो सकती. इतिहास की परतें निकालने के साथ 21वीं सदी की रेखाओं को असाधारण ढंग से कागज पर उतार देने की क्षमता भारत के किसी हिंदी संपादक में देखने को नहीं मिल सकती. इसलिए 1963 से 1969 के बीच राजेंद्र माथुर द्वारा लिखे गये लेख आज भी सामयिक और सार्थक लगते हैं. अगस्त, 1963 में उन्होंने लिखा था- ‘हमारे राष्ट्रीय जीवन में दो बुराइयां घर कर गयी हैं जिन्होंने हमें सदियों से एक जाहिल देश बना रखा है. पहली तो अकर्मण्यता, नीतिहीनता और संकल्पहीनता को जायज ठहराने की बुराई, दूसरी पाखंड की बीमारी, वचन और कर्म के बीच गहरी दरार की बुराई.’
राजेंद्र माथुर का जन्म सात अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश के धार जिले की बदनावर तहसील में हुआ था. पत्रकारिता में आने से पहले वे इंदौर के एक कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन कर रहे थे. पर 1970 में उन्होंने अध्यापन कार्य छोड़ दिया और ‘नई दुनिया’ के संपादन विभाग में आ गये. वर्ष 1981 में वे ‘नई दुनिया’ के प्रधान संपादक बने.
अक्तूबर 1982 में वे नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन कर दिल्ली आये और घिसी-पिटी पत्रकारिता को बदलने के लिए सारे मोर्चे खोल दिये. उनकी विशेषता यह थी कि राजनेता या प्रबंधकों के विचार या संबंध कैसे भी हों, अपनी बात की निष्पक्षता और पैनेपन में कमी नहीं आने देते थे. एक बार मैंने चंद्रास्वामी के राजनीतिक षड्यंत्रों को उजागर करने वाली विस्फोटक खबर लिखी. उस पर सबसे पहले समाचार संपादक की नजर पड़ी और उन्होंने माथुर साहब को रिपोर्ट की कॉपी दिखा दी. उन्होंने पढ़कर बिना कुछ काटे ‘टिक’ लगाया और कहा कि आप इसे छाप दीजिए.
चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने पर एक कार्यक्रम में उनकी ही उपस्थिति में माथुर साहब ने अपने भाषण में कुछ व्यंग्यात्मक टिप्पणियां कर दीं. जेपी आंदोलन और लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के समर्थक होने के बावजूद चंद्रशेखर सरल, सहज स्वभाव से की गयी टिप्पणी को बर्दाश्त नहीं कर सके और अगले दिन प्रबंधकों के समक्ष अपना कड़ा विरोध प्रकट किया. प्रबंधकों ने उनकी नाराजगी माथुर साहब तक पहुंचायी. संवेदनशील माथुर साहब को यह जानकर बेहद दुख हुआ.
दूसरा किस्सा राष्ट्रपति भवन से जुड़ा है. ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे. पंजाब में आतंकवादी घटनाएं बढ़ने के बाद मैंने नवभारत टाइम्स के लिए एक रिपोर्ट लिखी, जिसमें राष्ट्रपति भवन के अतिथि कक्ष में आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े एक व्यक्ति को रखे जाने जैसी गंभीर सूचनाओं का विवरण था. माथुर साहब ने उस रिपोर्ट में भी एक पंक्ति नहीं काटी. पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से खबर छप गयी. उसमें सीधे ज्ञानी जी को उत्तरदायी नहीं ठहराया गया था, परंतु राष्ट्रपति भवन के प्रेस सचिव ज्ञानी जी के वरिष्ठ विश्वसनीय सहयोगी का नाम उसमें आया था.
भारत में संभवतः यह पहला अवसर था जब सीधे राष्ट्रपति भवन और आतंकवादी गतिविधियों के सूत्रों का सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किसी अखबार में प्रकाशित हुआ. अगले दिन प्रधान संपादक के अतिरिक्त कंपनी के अध्यक्ष और कार्यकारी निदेशक तक राष्ट्रपति भवन से नाराजगी पहुंचायी गयी. लेकिन राजेंद्र माथुर ने इस मुद्दे पर भी निडरता दिखाई और किसी तरह की क्षमा याचना या भूल सुधार जैसी बात नहीं छापी.
पटना का संपादक रहते हुए मैंने बहुचर्चित चारा घोटाले का भंडाफोड़ करने वाली प्रामाणिक और दस्तावेजी खबरें सबसे पहले नवभारत टाइम्स में ही छापी. तब तत्कालीन मुख्यमंत्री के समर्थकों ने टाइम्स की प्रिंटिंग यूनिट पर हमला कर आग लगाने का प्रयास भी किया. पर यह राजेंद्र माथुर की संपादकीय दृढ़ता का ही नतीजा था कि मुझे या किसी संपादकीय सहयोगी को प्रबंधन से कभी किसी हस्तक्षेप या विरोध की सूचना नहीं मिली. माथुर साहब के लेखन में गांधी, नेहरू, मार्क्स, लोहिया के विचारों का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है. आप उन्हें किसी धारा से नहीं जोड़ सकते. वह भारतीय परंपराओं और संस्कृति का हवाला देते हुए संकीर्णता की बेड़ियां काट आधुनिक दृष्टिकोण अपनाने पर भी जोर देते रहे.
राजेंद्र माथुर ने फरवरी 1990 में ‘नवभारत टाइम्स’ के पटना संस्करण से जुड़े मेरे सहयोगी पत्रकारों के एक प्रशिक्षण कार्यक्रम को संबोधित करते हुए अपने सहज अंदाज में कहा था- ‘जीवन से ज्यादा चरित्र महत्वपूर्ण माना जाता है. जिंदगी क्या है, आदमी मर जाना पसंद करेगा, लेकिन अपने यश का मर जाना मर जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है. किसी की यश हत्या कोई आसानी से कैसे कर सकता है.’ इस तरह के विचार लिखते समय माथुर साहब को क्या कभी यह महसूस होता था कि अचानक भारतीय पत्रकारिता का यह सूर्य सुदूर बादलों में कहीं छिप जायेगा?
किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि सैकड़ों पत्रकारों को अदम्य विश्वास देने वाला महान संपादक महज 56 वर्ष की आयु में अचानक उनके बीच से चला जायेगा. नौ अप्रैल, 1991 को अचानक खबर मिली कि राजेंद्र माथुर अनंत विश्राम के लिए चले गये हैं. यह हम सबके लिए निजी आघात तो था ही, संपूर्ण हिंदी पत्रकारिता के लिए एक सुनहरे अध्याय पर आकस्मिक पटाक्षेप जैसी स्थिति थी.
(लेखक एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष हैं)

