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पहले से मजबूत है हमारी आंतरिक सुरक्षा, पढ़ें अजय साहनी का लेख

Internal Security : सच्चाई यह है कि हाल के वर्षों में देश में अस्थिरता और अलगाववादी हिंसा की घटनाओं में काफी कमी आयी है. इसका श्रेय हमारी सरकारों, सुरक्षा बलों तथा सुरक्षा व जांच एजेंसियों की निरंतर सक्रियता को दिया जाना चाहिए.

-अजय साहनी, कार्यकारी निदेशक
(इंस्टीट्यूट फॉर कनफ्लिक्ट मैनेजमेंट एंड साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल)

Internal Security : इस महीने लाल किले के पास हुई आतंकवादी विस्फोट के बाद से ही ऐसा जताया जा रहा है, जैसे आंतरिक सुरक्षा में बड़ी चूक हो गयी है. इसमें कोई शक नहीं कि लाल किले के पास हुआ विस्फोट शर्मनाक और निंदनीय था, जिसमें पंद्रह लोगों की जान चली गयी. जबकि तीस से ज्यादा लोग घायल हो गये. लेकिन ध्यान दीजिए, पुलिस तथा सुरक्षा व जांच एजेंसियों ने इस गिरोह के ज्यादातर लोगों को गिरफ्तार कर लिया था. विस्फोट के कुछ दिन पहले से ही जम्मू-कश्मीर से लेकर हरियाणा के फरीदाबाद में पुलिस ने कई संदिग्धों को हिरासत में लिया था. लेकिन उनमें एक हाथ नहीं आया और उसने लाल किले के पास विस्फोट कर दिया. इसलिए दिल्ली विस्फोट को सुरक्षा तंत्र की चूक नहीं माना जा सकता, खुफिया तंत्र की चूक तो वह खैर है ही नहीं. चूंकि यह विस्फोट देश की राजधानी में हुआ और इसकी साजिश के तार दूर तक जुड़े दिखे, इस कारण मीडिया ने इसे ज्यादा तूल दिया.


सच्चाई यह है कि हाल के वर्षों में देश में अस्थिरता और अलगाववादी हिंसा की घटनाओं में काफी कमी आयी है. इसका श्रेय हमारी सरकारों, सुरक्षा बलों तथा सुरक्षा व जांच एजेंसियों की निरंतर सक्रियता को दिया जाना चाहिए. अगर हम जम्मू-कश्मीर से बाहर देशभर में इस्लामी आतंकवादियों की गिरफ्तारी का आंकड़ा देखें, तो इस साल अब तक कुल 81 आतंकियों, अलगाववादियों की गिरफ्तारी हुई है. पिछले वर्ष जम्मू-कश्मीर से बाहर इस्लामी आतंकवादियों की गिरफ्तारी का आंकड़ा 80 था. यह पहले होने वाली सालाना गिरफ्तारियों के आंकड़े से बहुत कम है. इसका अर्थ यह है कि देशभर में इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई निरंतर जारी है. जहां तक जम्मू-कश्मीर में होने वाली आतंकवादी घटनाओं की बात है, तो उसमें उल्लेखनीय कमी दिखती है. और यह कमी आज नहीं हुई है, पिछले कई साल से जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद पर नकेल कसी गयी है.

आतंकवाद का रुझान गिरता जा रहा है. इसके कई कारण हो सकते हैं. इन सब तथ्यों की अनदेखी कर आतंकवाद के मुद्दे को सनसनीखेज बनाना ठीक नहीं है. देश के अलग-अलग इलाकों में पुलिस और सुरक्षा बल रोज संदिग्धों को गिरफ्तार करते हैं. लेकिन ये गिरफ्तारियां मीडिया की सुर्खी नहीं बन पाती. पर अगर कहीं आतंकी धमाका हो गया, तो ऐसा जताया जाता है, मानो बहुत बड़ी चूक हो गयी और देश असुरक्षित है. ऐसा कतई नहीं है. देश की सीमा पर आतंकी घटनाओं को रोका जा सकता है. लेकिन आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियां तो हमेशा रहेंगी. भारत की बात छोड़िए, दुनिया का कोई देश इसकी गारंटी नहीं दे सकता कि उसके यहां अलगाववादी हिंसा नहीं होती या कभी नहीं होगी.


अपने यहां सिर्फ इस्लामी आतंकवाद ही क्यों, पूर्वोत्तर में उग्रवादी हिंसा और देश के कई राज्यों में व्याप्त नक्सली समस्या पर भी कमोबेश लगाम लगी है. पूर्वोत्तर का मणिपुर राज्य, हालांकि काफी समय तक सुलगा हुआ रहा, लेकिन वह उग्रवाद की समस्या नहीं थी. असम में उल्फा का जो आतंक कभी था, वह आज इतिहास बन चुका है. ऐसे ही, केंद्र सरकार ने अगले साल तक नक्सलवाद को निर्मूल करने का लक्ष्य रखा है, और खासकर छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ उसकी सतत कार्रवाई बताती है कि नक्सली अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहे हैं. इसलिए आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर प्रगति हुई है. हम पहले की तुलना में ज्यादा सुरक्षित और आश्वस्त हैं. इसका कारण यह है कि सरकार का नियंत्रण बढ़ता जा रहा है.


फरीदाबाद के आतंकी मॉड्यूल का भंडाफोड़ होने के बाद इस पर भी चिंता जतायी जा रही है कि ये आतंकी सफेदफोश थे, डॉक्टर थे, लिहाजा अब पढ़े-लिखे लोग भी आतंकवाद से जुड़ रहे हैं, ऐसे में, देश पर खतरा बढ़ गया है. यह भी भ्रामक नजरिया है. सफेदपोश आतंकी पहले भी थे. यह कोई नया ट्रेंड नहीं है. फरीदाबाद के मॉड्यूल में ज्यादातर आतंकवादी डॉक्टर थे, यह सच है. समझने की जरूरत है कि जो आतंकवादी सोच का होगा, वह उन्हीं लोगों के बीच तो अपने विचार का प्रसार करेगा, जो उसके साथ उठते-बैठते हैं. अपने गोपनीय क्रियाकलापों के बारे में वह अपने नजदीकियों पर ही भरोसा करेगा.

यह मान सकते हैं कि फरीदाबाद की उस यूनिवर्सिटी में आतंकवादी विचारधारा के एक डॉक्टर ने अपने दोस्तों को धीरे-धीरे आतंकवाद से जोड़ा. लेकिन इस पर भी विचार करना चाहिए कि बहुत सारे लोग उस डॉक्टर की सोच से सहमत नहीं हुए होंगे. आखिर यह विवरण सामने आया ही है कि एक व्यक्ति ने आत्मघाती विस्फोट की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया था. तथ्य यह है कि आतंकवाद की कमर तोड़ देने के बाद जब से पाक प्रायोजित आतंकवादी संगठन की सक्रियता इस देश में कम रह गयी है, संगठित गिरोहों द्वारा पहले की तरह आतंकवादियों की नियुक्ति नहीं की जा रही है, तब से व्यक्तिगत स्तर पर रेडिकलाइज्ड आतंकवादियों के उदाहरण ही ज्यादातर सामने आ रहे हैं. फरीदाबाद का आतंकवादी मॉड्यूल इसी का उदाहरण है. लिहाजा, आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दे पर सनसनीखेज तरीके से सोचने के बजाय जिम्मेदारी से विचार करना चाहिए.


लाल किला विस्फोट के बाद ऐसा भी कहा गया कि यह देश को ध्रुवीकृत करने का नतीजा है और इससे आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियां बढ़ी हैं. मैं इससे सहमत नहीं हूं. हकीकत यह है कि दो-ढाई दशक पहले सीमा पर और देश के भीतर भी आतंकवाद की चुनौती जितनी भीषण थी, आज उतनी नहीं है. जबकि पहले तो कथित सेक्युलर सोच वाली सरकारें थीं. तब तो आतंकवादी घटनाएं कम होनी चाहिए थीं. लेकिन ऐसा नहीं था. यह समझना चाहिए कि आतंकवाद का न तो कोई धर्म होता है और न कोई कारण. कुछ लोगों का मानना है कि आतंकवाद गरीबी की उपज है.

लेकिन हमारे देश का इतिहास गवाह है कि आतंकवाद-अलगाववाद उन राज्यों में फैला, जो गरीब नहीं थे. जम्मू-कश्मीर को गरीब कतई नहीं मान सकते. लेकिन वहां आतंकवाद की समस्या बनी हुई है. देश के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक पंजाब में कुछ दशक पहले अलगाववाद की कैसी भीषण चुनौती थी, वह हम सब जानते हैं. इसलिए आतंकवाद का कोई सीधा कारण नहीं होता. समाज चाहे गरीब हो या अमीर- हर जगह खुराफाती लोग होते हैं, जो अलग राय रखते हैं, अलग तर्क देते हैं और अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाते हैं. लेकिन इस तरह की हिंसा अब देश में पहले की तुलना में बहुत कम रह गयी है, जो एक उपलब्धि है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar Digital Desk
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