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नेपाल में राजशाही की बहाली के लिए आंदोलन

Monarchy in Nepal : नेपाल की संसद ने उसी साल राजशाही को खत्म कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संघीय गणराज्य की स्थापना की घोषणा की थी. आम धारणा थी कि नेपाल लोकतांत्रिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है. पर प्रदर्शनकारियों की मांगें रूढ़िवादी मूल्यों के पुनरुत्थान और मौजूदा शासन में लोगों के विश्वास की कमी को दर्शाती हैं.

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Monarchy in Nepal : दुनियाभर में लोकतंत्र का पतन हो रहा है. कई जगहों पर लोकतंत्र अधिनायकवाद और सैन्य शासन में बदल गया है, पर नेपाल में जो हो रहा है, वह ज्यादा विडंबनापूर्ण है. वहां राजशाही की बहाली के लिए आंदोलन चल रहा है. नेपाल में प्रदर्शनकारियों की दो मुख्य मांगें हैं- राजशाही की बहाली और हिंदू राष्ट्र की स्थापना. इसका तात्पर्य एक ऐसी व्यवस्था और राज्य की बहाली से है, जिसका अस्तित्व 2008 में समाप्त हो गया था.

नेपाल की संसद ने उसी साल राजशाही को खत्म कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संघीय गणराज्य की स्थापना की घोषणा की थी. आम धारणा थी कि नेपाल लोकतांत्रिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है. पर प्रदर्शनकारियों की मांगें रूढ़िवादी मूल्यों के पुनरुत्थान और मौजूदा शासन में लोगों के विश्वास की कमी को दर्शाती हैं.


नेपाल की राजशाही पारिवारिक षड्यंत्र और 21वीं सदी के राजनीतिक घटनाक्रम के कारण समाप्त हो गयी. वर्ष 2001 में राजा बीरेंद्र के परिवार को गोली मार दी गयी थी. तत्कालीन क्राउन प्रिंस दीपेंद्र को उस हत्याकांड के लिए दोषी ठहराया गया था. पर तथ्य यह है कि लोगों का विश्वास राजतंत्र से उठ चुका था. राजा ज्ञानेंद्र द्वारा राजशाही की शक्ति को बढ़ाने के प्रयास ने लोगों को और अलग-थलग कर दिया. पर 17 साल बाद एक नया मोड़ आया है. नेपाल में राजशाही और हिंदू राज्य की बहाली के लिए हर जगह प्रदर्शन हो रहे हैं. प्रदर्शनकारी नारे लगा रहे हैं, ‘राजा आओ देश बचाओ’.

विडंबना यह है कि एक पूर्व माओवादी नेता दुर्गा परसाई, जिन्होंने कभी राजशाही का विरोध किया था, आज राजशाही को बहाल करने के संघर्ष का नेतृत्व कर रहे हैं. विगत 28 मार्च को हुए ऐसे ही प्रदर्शन में हजारों लोगों ने हिस्सा लिया. तब पुलिस कार्रवाई में तीन प्रदर्शनकारियों की जान चली गयी और सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि लोग वर्तमान शासन से असंतुष्ट हैं. कम्युनिस्ट सरकार के तहत कमजोर अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, भारी पलायन और संस्कृति के नुकसान से लोग निराश हैं.

वर्ष 2023 में नेपाल की आर्थिक विकास दर मात्र दो फीसदी रही. नेपाल में लोकतांत्रिक परिवर्तन से नागरिकों की उम्मीदें काफी बढ़ गयी थीं. लोग सोचते थे कि शासन प्रगतिशील और कल्याणकारी होगा. इसके बजाय, पिछले दो दशकों में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी आंतरिक संघर्ष, प्रतिद्वंद्विता, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में फंसी रही. आम राय है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने आदर्शों को खो दिया है और यह अन्य सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग से अलग नहीं है. सत्ता के संघर्ष ने जनहित के संघर्ष की जगह ले ली है.

नेपाल ने पिछले 17 साल में 13 अलग-अलग सरकारें देखी, जो एक बहुजातीय राज्य में राजनीति की अस्थिरता को दर्शाती है. नेपाल दरअसल राजनीतिक उथल-पुथल के ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहां पुराने अभिजात वर्ग को बदला लेने का अवसर दिख रहा है. यह पुराने विस्थापितों और विशेषाधिकार प्राप्त नये अभिजात वर्ग के बीच का संघर्ष है. राजा ज्ञानेंद्र शाह राजशाही की बहाली और धर्म के नाम पर लोगों को एकजुट करना चाहते हैं. माओवादी सेंटर के पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड और यूनाइटेड सोशलिस्ट के माधव कुमार नेपाल ने ज्ञानेंद्र शाह को कानूनी नतीजों की चेतावनी दी है. उन्होंने प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को संविधान को नष्ट करने और अराजकता पैदा करने के प्रयासों के लिए ज्ञानेंद्र को गिरफ्तार करने की सलाह दी है. प्रधानमंत्री का कहना है कि ज्ञानेंद्र केवल चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से ही सत्ता में आ सकते हैं.


अलबत्ता कई कारणों से ज्ञानेंद्र शाह के लिए सत्ता में लौटना आसान नहीं होगा. पहली बात यह कि राजा के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान वे लोकप्रिय व्यक्ति नहीं रहे हैं. निरंकुश शासक बनने के प्रयास में उन्होंने 2005 में सरकार को भंग करने की भयानक गलती की. लोग उनकी उस विफल कवायद को नहीं भूले हैं. वह दयालु राजा नहीं, बल्कि सत्ता प्राप्ति की उच्च महत्वाकांक्षा वाले व्यक्ति प्रतीत होते हैं. दूसरी बात, नारायणहिती पैलेस में ज्ञानेंद्र को फिर से स्थापित करने की मांग करने वाले अधिकांश लोग मूल रूप से पुराने राजा के प्रति आदर दिखाने के बजाय वर्तमान शासन से नाखुश नजर आते हैं. तीसरा, राजा ज्ञानेंद्र 77 साल के हैं और उनके उत्तराधिकारी अक्षम हैं. इसलिए राजशाही की मांग अकारण है. नेपाल में राजशाही की वापसी या तो संविधान संशोधन से संभव होगी या फिर मजबूत जन विद्रोह के जरिये.

ध्यान रखना चाहिए कि राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी को 2017 के चुनाव में कुल दो प्रतिशत वोट और निचले सदन में सिर्फ एक सीट मिली थी. जबकि 2022 में उसे लगभग छह फीसदी वोट और निचले सदन में 14 सीटें मिलीं. लेकिन इसे भी राजशाही की बहाली का जनादेश नहीं कह सकते. ऐसे में, हालिया विरोध प्रदर्शनों को मौजूदा शासन के खिलाफ लोगों को संगठित करने के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए. हां, भविष्य में यदि विरोध प्रदर्शन तेज हुआ, तो सत्ता में साझेदारी का कोई फॉर्मूला निकल सकता है.


राजशाही के समर्थक ‘हिंदू राष्ट्र’ के पुनर्निर्माण के नाम पर भी लोगों को लामबंद करने की कोशिश कर रहे हैं. यह निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्ष शासन के खिलाफ विचारधारा के रूप में काम कर सकता है. राजशाही समर्थकों का अनुमान है कि यह विचारधारा भारतीय जनता और शासन को पसंद आ सकती है. पर नयी दिल्ली इन घटनाक्रमों को बेहद सावधानी से देख रही है, क्योंकि वह नेपाल के बदलते हालात में फंसना नहीं चाहती. भारत इसलिए भी सतर्क रहेगा, क्योंकि उसने बांग्लादेश में शासन परिवर्तन और उसके दुष्परिणाम देखे हैं.

हालांकि यह एक तथ्य है कि भारत नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के चीन के प्रति झुकाव को नापसंद करता है. पर भारत को इस बात का भरोसा नहीं है कि राजा ज्ञानेंद्र चीन के खिलाफ भारत का पक्ष लेंगे. विदेश मंत्री डॉ एस जयशंकर ने स्पष्ट कर दिया है कि नेपाल में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में भारत की कोई भूमिका नहीं है. बेशक वर्तमान भारतीय शासन नेपाल को हिंदू राज्य के रूप में देखना चाहेगा, पर वह वहां की बदलती घरेलू राजनीति में हस्तक्षेप करने से बचेगा. भारत की मुख्य चिंता नेपाल में राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने की है, ताकि वहां के लोगों का भारत की ओर पलायन न बढ़े और न ही उसकी चीन पर निर्भरता बढ़े. लिहाजा, नेपाल के वर्तमान संकट में हस्तक्षेप किये बिना भारत एक स्थिर सरकार का समर्थन करेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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