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स्मृति शेष : वैज्ञानिक सोच और साहित्यिक अभिव्यक्ति का संगम थे नार्लीकर

Jayant Vishnu Narlikar : जयंत विष्णु नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई, 1938 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था. उनके पिता गणितज्ञ और मां संस्कृतज्ञ थीं. उनके घर में ही तारों और छंदों की दोहरी परंपरा बहती थी. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उन्होंने गणित में स्नातक किया.

-आशुतोष 
कुमार ठाकुर-

Jayant Vishnu Narlikar : भारत में विज्ञान की कथा कहना, उसे रोचक बनाना और फिर उसमें कल्पना की उड़ान भर देना कोई आसान काम नहीं था. लेकिन जिस तरह एक सितारा अपनी खुद की ऊर्जा से जगमगाता है, उसी तरह डॉ जयंत विष्णु नार्लीकर ने विज्ञान को भाषा और साहित्य की जमीन पर लाकर बिठा दिया. जब यह खबर मिली कि नार्लीकर साहब नहीं रहे, तो एक झुरझुरी-सी आयी, मानो बचपन की किसी दीवार पर टंगी विज्ञान की कोई तस्वीर गिर पड़ी हो. उनकी कहानियां, उनकी कल्पनाएं, उनके लेख जैसे हमारे भीतर की किसी झील में प्रतिबिंब की तरह हमेशा थिरकते रहे. वह मराठी में लिखते थे, लेकिन उनकी पहुंच भाषाओं से परे थी.


जयंत विष्णु नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई, 1938 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था. उनके पिता गणितज्ञ और मां संस्कृतज्ञ थीं. उनके घर में ही तारों और छंदों की दोहरी परंपरा बहती थी. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उन्होंने गणित में स्नातक किया. वहां के घाटों पर वह जिन तारों से परिचित हुए, वही शायद उन्हें कैम्ब्रिज तक ले गये. कैम्ब्रिज में उन्होंने महान खगोलविद् फ्रेड हॉयल के साथ मिलकर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों पर शोध किया. उस दौरान स्टीफन हॉकिंग्स उनके सहपाठी थे. लेकिन अगर आप ध्यान से देखें, तो पायेंगे कि नार्लीकर की लेखनी में हॉकिंग्स की उदासी नहीं, बल्कि एक गहरी भारतीय जिज्ञासा है. जैसे वह यह जानना चाहते हों कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के पहले कौन-सा प्रश्न पूछा गया था.


वर्ष 1972 में, नार्लीकर टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआइएफआर) में प्रोफेसर बने. वर्ष 1988 में उन्होंने इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (आइयूसीएए) की स्थापना की, जो आज भारत में खगोलशास्त्र और खगोलभौतिकी के अध्ययन का प्रमुख केंद्र है. उनका उद्देश्य था कि विज्ञान केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित न रहे, बल्कि आम जनता तक पहुंचे. डॉ नार्लीकर ने विज्ञान को जनभाषा दी. वह केवल विज्ञान के व्याख्याता नहीं थे, वह उसके कवि थे. उनकी विज्ञान फंतासी कहानियां विज्ञान को मनोरंजन नहीं, बल्कि विमर्श बनाती थीं.


‘वामन परत न आला’ की, जिसे अंग्रेजी में ‘द रिटर्न ऑफ वामन’ के नाम से जाना गया, कथा ही नहीं, उसका संरचनात्मक सौंदर्य भी अद्वितीय है. यह कथा नहीं, एक प्रतीक है. विज्ञान यहां केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि नायक बन जाता है. ‘टाइम मशीन ची किमया’, ‘प्रेषित’, ‘यक्षांची देणगी’, ‘अभयारण्य’ और उनकी चर्चित पुस्तकें ‘वायरस’ तथा ‘ए टेल ऑफ फोर सिटीज’-हरेक किताब में उनकी दृष्टि के अलग-अलग कोण नजर आते हैं. ये कहानियां भविष्य की आशंकाओं, वर्तमान की जटिलताओं और अतीत की स्मृतियों को जोड़ती हैं. वर्ष 2014 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित ‘ए टेल ऑफ फोर सिटीज’ उनके लेखन का चरम था. इसके हिंदी अनुवाद से नयी पीढ़ी को डॉ नार्लीकर की अद्भुत कल्पनाशक्ति से परिचय हुआ. उनके लिए विज्ञान केवल डाटा नहीं था, वह एक अनुभव था. जिस तरह कोई कवि कविता में स्मृति की सिलवटें खोलता है, उसी तरह नार्लीकर विज्ञान में संभावना की परतें उघाड़ते थे. उनका लेखन प्रशिक्षित वैज्ञानिकों और जिज्ञासु बच्चों के बीच एक सेतु था. वह मराठी में लिखते थे, लेकिन उनकी भाषा में एक ऐसी पारदर्शिता थी, जो किसी भी भाषा की दीवार को पार कर पाठकों के हृदय तक पहुंच जाती थी. उनके शब्दों में विज्ञान था, लेकिन वह गणित की कठिन परिभाषा नहीं, एक कहानी की तरह सरल, सहज और आत्मीय रूप में प्रकट होता था.


डॉ नार्लीकर का जीवन वैज्ञानिक सोच, साहित्यिक अभिव्यक्ति और मानवीय संवेदनाओं का सुंदर संगम था. उनकी लेखनी ने विज्ञान को आम लोगों के लिए सुलभ और रोचक बना दिया. उनकी कहानियां न केवल वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होती थीं, बल्कि उनमें मानवीय संवेदनाएं और सामाजिक संदेश भी निहित थे. डॉ जयंत नार्लीकर का निधन न केवल एक वैज्ञानिक के सुदीर्घ जीवन का अंत है, बल्कि एक युग का समापन भी है. उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों को विज्ञान और साहित्य के माध्यम से प्रेरित करती रहेगी. उनकी कहानियां, उनके विचार और उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि जिज्ञासा, कल्पना और ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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