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अमेरिका-चीन टैरिफ युद्ध का भारत पर असर, पढ़ें शशांक का खास लेख

US-China tariff war : सच्चाई यह है कि भारत सहित अन्य देशों के साथ अमेरिका व्यापार समझौता करने के लिए तैयार है. इसकी वजह यह है कि ट्रंप के टैरिफ मामले में भारत समेत दूसरे देशों का रवैया नर्म है.

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US-China tariff war : अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद वैश्विक स्तर पर व्यापारिक रिश्ते में व्यापक उथल-पुथल देखने को मिल रही है. अमेरिकी राष्ट्रपति के टैरिफ युद्ध के कारण दुनिया के अधिकांश देश के व्यापार पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. इसका असर अमेरिका-भारत के रिश्तों पर भी पड़ना तय है. उदाहरण के लिए, ट्रंप की संरक्षणवादी नीति का असर भारतीय छात्रों को मिलने वाले वीजा पर पड़ ही रहा है. हालांकि ट्रंप ने चीन को छोड़कर अन्य देशों को 90 दिनों की मोहलत दी है. ट्रंप चाहते हैं कि भारत सहित अन्य देश व्यापार के मामले में संतुलन बनाने के लिए कदम उठाएं. ट्रंप की कोशिश टैरिफ वार के बीच अन्य देशों के साथ व्यापार समझौता करने की भी है.


सच्चाई यह है कि भारत सहित अन्य देशों के साथ अमेरिका व्यापार समझौता करने के लिए तैयार है. इसकी वजह यह है कि ट्रंप के टैरिफ मामले में भारत समेत दूसरे देशों का रवैया नर्म है. दूसरी ओर, चीन जैसे देशों के सख्त रवैये को देखते हुए अमेरिका ने और अधिक टैरिफ लगाने का फैसला लिया है. यह मानना गलत होगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने टैरिफ लगाने का फैसला यों ही ले लिया होगा. अमेरिका का दरअसल यह साफ मानना है कि कई देशों के साथ व्यापार समझौते के कारण देश को बहुत आर्थिक नुकसान हो रहा है और अमेरिकी हितों की अनदेखी कर चीन सहित कई देश अनुचित आर्थिक लाभ हासिल कर रहे हैं.

इस सोच को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप ने व्यापारिक हित में टैरिफ बढ़ाने का फैसला लिया है. तथ्य यह है कि हाल में वर्षों में चीन के साथ व्यापार में अमेरिका का व्यापार घाटा काफी बढ़ गया है. अमेरिकी बाजार में चीनी उत्पादों का दखल काफी बढ़ गया है. इसके कारण जहां अमेरिकी हितों को भारी नुकसान हो रहा था, वहीं अमेरिका के पड़ोसी देशों में भी चीन आर्थिक तौर पर मजबूत होता जा रहा था. यह सर्वविदित है कि ट्रंप ने अमेरिकी लोगों के बीच अमेरिका को फिर से महान बनाने का वादा कर रखा है. इस वादे के अनुरूप ट्रंप ने टैरिफ बढ़ाने का फैसला लिया, ताकि अमेरिका के आर्थिक हितों को सुरक्षित किया जा सके. इस टैरिफ वार की चपेट में स्वाभाविक रूप से भारत सहित कई देश आ गये हैं. जबकि ट्रंप के निशाने पर मुख्य रूप से तो चीन ही है. इसीलिए व्यावहारिक फैसला लेते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन को छोड़कर अन्य देशों को टैरिफ के अतिरिक्त दबाव से छूट प्रदान कर दी है.

अगर गौर करें, तो पायेंगे कि दूसरी बार अमेरिका की सत्ता संभालने के बाद से ही ट्रंप ने वैश्विक स्तर पर चल रहे कई युद्धों में अमेरिका की भागीदारी कम करने पर जोर दिया. इसके पीछे ट्रंप की सोच यह है कि दुनिया भर के देशों को मदद करने से अमेरिकी संसाधनों का भारी दुरुपयोग होता है, जिसका खामियाजा अमेरिकी नागरिकों को भुगतना पड़ता है. रूस और यूक्रेन के बीच का युद्ध रोकने के लिए ट्रंप ने दोनों देशों के प्रतिनिधियों से बातचीत शुरू की. उन्होंने यूक्रेन को साफ शब्दों में यह संदेश दिया कि युद्ध रोकना होगा, और अगर ऐसा नहीं किया गया, तो यूक्रेन को सैन्य और आर्थिक मदद अमेरिका की ओर से मुहैया नहीं करायी जाएगी..

अमेरिका के दबाव में रूस और यूक्रेन के बीच शांति वार्ता शुरू हुई, लेकिन इसका कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकल सका. ट्रंप ने इस मामले में रूस और यूक्रेन के रवैये की आलोचना तो की ही, साथ-साथ उन्होंने नाटो देशों के आर्थिक और सैन्य सहयोग में कटौती करने की भी बात कही है. अमेरिका के इस फैसले से नाटो के कई देश नयी व्यवस्था बनाने में जुट गये हैं. अमेरिका के इस फैसले के कारण कई यूरोपीय देशों की सुरक्षा को लेकर अमेरिकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठ रहे हैं. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इससे वैश्विक स्तर पर अमेरिका की साख को नुकसान पहुंचा है.

बाहर तो छोड़िए, खुद अमेरिका के भीतर ट्रंप की नीतियों पर सवाल उठ रहे हैं. सिर्फ यही नहीं कि ट्रंप ने टैरिफ वार शुरू करने का फैसला बहुत सोच-समझकर लिया, बल्कि वह चीन को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं. चीन की कोशिश वर्ष 2049 तक खुद को वैश्विक महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने की है. जाहिर है कि यह बात अमेरिका को कतई स्वीकार नहीं हो सकती. वैसे भी अमेरिका में चीन के बढ़ते प्रभुत्व को लेकर सवाल उठते रहे हैं. ट्रंप ने चीन के इस प्रभाव को कम करने के लिए ही यह आक्रामक रवैया अपनाया है. दरअसल अमेरिका सहित कई अन्य देश चीन में होने वाले निवेश को कम कर भारत और अन्य देशों में लगाने की तैयारी कर रहे थे. लेकिन विभिन्न कारणों से वह समझौता नहीं हो पाया और चीन व्यापार के क्षेत्र में काफी सशक्त बन गया.

चीन के आर्थिक और सामरिक तौर पर बढ़ रहे प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका कूटनीतिक स्तर पर भी प्रयास कर रहा है. वास्तविकता यह है कि आर्थिक तौर पर सशक्त होने के बाद चीन सैन्य तौर पर भी खुद को स्थापित करने की कोशिश में जुट गया है. ऐसे में अमेरिका भारत के साथ मिलकर चीन के प्रभाव को कम करने के लिए प्रयास कर रहा है. अमेरिका का मानना है कि चूंकि मौजूदा समय में चीनी अर्थव्यवस्था गंभीर संकट से जूझ रही है, ऐसे में, उसे कमजोर करने का यह सही मौका है. लेकिन ट्रंप की इस आक्रामकता का चीन पर कितना और कैसा असर होगा, यह देखने की बात होगी. इस मामले में कूटनीतिक विशेषज्ञों की राय अलग-अलग है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह टैरिफ वार वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ बहुत कुछ उलट-पुलट देगा.


सच तो यह है कि चीन का बढ़ता प्रभुत्व भारत के लिए भी चिंता का विषय है, क्योंकि चीन भारत के पड़ोसी देशों में राजनीतिक और कूटनीतिक प्रभाव लगातार बढ़ाने का प्रयास कर रहा है. बांग्लादेश की मौजूदा सरकार भी चीन के इशारे पर काम कर रही है. पूर्वोत्तर से सटे देशों जैसे म्यांमार और भूटान को लेकर भी चीन आक्रामक नीति पर काम कर रहा है. ऐसे में भारत सरकार को चीन के प्रभाव को कम करने के लिए व्यापक स्तर पर रणनीति अपनानी होगी. वैसे भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते को लेकर कुछ विवाद है. इसको लेकर जल्द ही दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच उच्च-स्तरीय बैठक होने वाली है. अमेरिका दबाव बनाकर बीच का रास्ता तैयार करने की कोशिश में है. अमेरिका और चीन के बीच का व्यापार युद्ध चाहे कितना भी गंभीर हो और कितना भी लंबा खिंचे, इसका असर भारत पर पड़े बिना नहीं रह सकता. अत: हमें इस बारे में सजग रहना होगा और इसी के अनुरूप अपनी नीतियां तैयार करनी होंगी, क्योंकि यह स्थिति लंबे समय तक बनी रह सकती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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