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संविधान से ही मिलेगा हर समाधान

समानता, बंधुत्व, कानून का शासन, संविधानवाद ऐसे मूल्य हैं जिन्हें मानव समाज ने बड़ी कुर्बानियों के बाद हासिल किया है और ये नैसर्गिक न्याय के मूल आधार हैं.

देश की आजादी को 76 वर्ष हो चुके हैं. पंद्रह अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ, तब हमारे राष्ट्र निर्माताओं के समक्ष एक ऐसी व्यवस्था बनाने की चुनौती थी, जिससे राष्ट्र का निर्माण न केवल स्वतंत्रता संग्राम के उच्च आदर्शों के आधार पर हो, बल्कि उसका संचालन विश्व की स्थापित उच्च लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से भी हो.

भारत की विविधता, लंबी पराधीनता, लोकतांत्रिक मूल्यों की अनभिज्ञता जैसी चुनौतियों के साथ विश्व के उच्चतम मानदंडों पर आधारित लोकतांत्रिक संविधान की रचना के लिए संविधान सभा का गठन किया गया, और हमारे राष्ट्र निर्माता लिखित संविधान की तैयारी में जुट गये. प्रख्यात संविधानविद् ग्रेनविल ऑस्टिन लिखते हैं- इस संविधान का अस्तित्व ही एक सामाजिक क्रांति का वक्तव्य था. यह आधुनिकता की ओर ले जाने वाली शक्ति का द्योतक था.

ग्रेनविल विवेचना करते हैं कि अतीत में ऐसे कई संविधानों की रचना हुई है, जिनमें स्वतंत्र राज्यों के प्रतिनिधियों ने समान हितों के लिए सरकार का निर्माण किया. स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया तथा अमेरिका इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. वर्ष 1873 में फ्रांस, 1936 में सोवियत संघ और 1949 में जर्मनी में जब संविधानों की रचना की गयी तो वे सार्वभौमिक थे. नाइजीरिया ने अपना संविधान औपनिवेशिक छत्रछाया में बैठ कर तैयार किया. परंतु भारत का उदाहरण अनुपम है.

भारत के सार्वभौमिक लोगों ने वर्ष 1935 के अधिनियम के अंतर्गत कार्य करते हुए ऐसे समय संविधान का निर्माण किया, जब भारत उपनिवेशवाद के चंगुल से निकलकर स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हो रहा था. म्यांमार और पाकिस्तान का उदाहरण ठीक इसके विपरीत है. म्यांमार में संविधान निर्माण का कार्य एक बहुत ही छोटे समूह द्वारा जल्दबाजी में किया गया था, जबकि पाकिस्तान 1960 तक संविधान सभाओं और संविधान निर्माण के परीक्षणों में सर्वथा असफल रहा.

ग्रेनविल जिसे सामाजिक क्रांति कहते हैं, उसे अत्यंत सभ्य देशों में स्त्रियों को मताधिकार प्राप्ति की समय तालिका से समझा जा सकता है. आधुनिक संसदीय लोकतंत्र का जन्मदाता होने के गौरव से संपन्न ब्रिटेन में स्त्रियों को यह अधिकार 1928 में प्राप्त हुआ (मैग्नाकार्टा के करीब 700 वर्ष बाद), अमेरिका में 1920 में (संविधान की घोषणा के 150 वर्ष बाद) और यूरोपीय समझ के अनुसार विश्व इतिहास के अकेले लोकतंत्र ग्रीस में 1952 में मिला. वहीं भारत में संविधान बनने के साथ ही स्त्रियों के मताधिकार की व्यवस्था की गयी.

कई बार संविधान पर प्रश्न उठाने के क्रम में कुछ लोग संविधान सभा की वैधता और नैतिकता पर भी प्रश्न उठाते हैं. उनका मानना है कि अंग्रेजों की छत्रछाया में संगठित संविधान सभा जनप्रतिनिधि होने का दावा नहीं कर सकती. देखा जाए, तो सभा में कांग्रेस का बहुमत था, परंतु उसमें सभी मतों का प्रतिनिधित्व था.

संविधान सभा के वाद-विवाद इस बात के गवाह हैं कि बहुमत ने कभी भी अपना मत थोपने का कार्य नहीं किया. सभा में हिंदू महासभा के डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अनुसूचित जाति संघ के डॉ भीमराव अंबेडकर, देसी रियासतों के प्रतिनिधियों के रूप में वीटी कृष्णम्माचारी, रामास्वामी मुदलियार, एन माधवराव और वीएल मित्र का नाम उल्लेखनीय है. ख्याति प्राप्त नेताओं में जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, डॉ राजेंद्र प्रसाद, केएम मुंशी,

मौलाना आजाद का नाम प्रमुखता से किया जा सकता है. नेहरू और पटेल विचारों में एक-दूसरे से विपरीत होते हुए भी संविधान संरचना के सशक्त स्तंभ थे. इस प्रकार, भारत का संविधान गहन मंथन एवं वाद-विवाद के बाद तैयार किया गया और इसमें हर उस महत्वपूर्ण मूल्य एवं प्रावधान को रखा गया जो एक प्रगतिशील लोकतंत्र के निर्माण के लिए आवश्यक था.

परंतु यह ध्यान रखे जाने की आवश्यकता है कि संविधान राष्ट्र के संचालन की रूपरेखा तैयार करता है, इसको अमलीजामा पहनाने की जिम्मेदारी जनप्रतिनिधियों और संवैधानिक संस्थानों की होती है. डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है, इसमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों द्वारा होता है जो इसे चलाते हैं. भारत को ऐसे लोगों की जरूरत है जो ईमानदार हों और देश के हित को सर्वाेपरि रखें, हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है. हममें सांप्रदायिक, जातिगत, भाषागत, प्रांतीय आदि अंतर हैं.

अतः इस संविधान के लिए दृढ़ चरित्र वाले लोगों, दूरदर्शी लोगों की जरूरत है, जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न दें और उन पूर्वाग्रहों से उपर उठ सकें जो इन अंतरों के कारण उत्पन्न होते हैं. हम केवल यही आशा कर सकते हैं कि देश में ऐसे लोग प्रचुर संख्या में सामने आयेंगे.

भारत भौगोलिक विस्तार मात्र नहीं है और न ही केवल एक राजनीतिक इकाई भर है. इसकी सजीव विविधता और तमाम संघर्षों के बावजूद अटूट रहने की क्षमता इसे पश्चिमी सभ्यता पर आधारित राष्ट्र की तमाम बौद्धिक परिभाषाओं और ऐतिहासिक अनुभवों से अलग करती है. भारत एक विचार के रूप में एक भरोसा, एक विश्वास है, जो कि राष्ट्रीय आंदोलन की देन है. भारत समूचे विश्व को कुछ अनूठा योगदान दे सकने के लिए नियति द्वारा संकल्पित है.

आज एक बार फिर हम सबको भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की वह बात याद करने की जरूरत है कि जब हम भारत माता की जय बोलते हैं, तो हमें जानना होगा कि हम किसके जय की बात कर रहे हैं, आखिर भारत माता कौन हैं? अपनी आत्मकथा में नेहरू इस प्रश्न का उत्तर देते हैं. वह कहते हैं कि हिंदुस्तान के नदी, पहाड़, जंगल, खेत हमें प्यारे हैं, लेकिन असल में भारत माता सारे मुल्क में फैले करोड़ों लोग हैं और उनकी जय ही, भारत माता की जय है.

कई बार यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया जाता है कि संविधान के प्रावधान समय के साथ अनुपयोगी हो चुके हैं. ऐसे विचारों को सावधानीपूर्वक परखने की आवश्यकता है और उनके निहितार्थों को समझने की आवश्यकता है. समानता, बंधुत्व, कानून का शासन, संविधानवाद ऐसे मूल्य हैं जिन्हें मानव समाज ने बड़ी कुर्बानियों के बाद हासिल किया है और ये नैसर्गिक न्याय के मूल आधार हैं. हमने अपने संविधान को इन मूल्यों के सांचे में ढाला है.

साथ ही, संशोधन के प्रावधानों से इसे आवश्यक लचीलापन भी प्रदान किया है. इस संविधान को बदलने की बात करने से पहले हमें भारत के नौवें राष्ट्रपति केआर नारायणन की बात याद कर स्वयं से पूछना चाहिए कि हमने संविधान को असफल किया है या संविधान ने हमें असफल किया है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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