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23 मार्च जयंती पर विशेष : समावेशी राजनीति के पक्षधर थे डॉ लोहिया

Dr Ram Manohar Lohia : इस देश में डॉ लोहिया को सही मायनों में कभी समझा ही नहीं गया. उनके विचार और संघर्ष उस समय की पारंपरिक राजनीति और समाज की सीमाओं से परे थे. उनका दृष्टिकोण न केवल भारतीय राजनीति, बल्कि भारतीय समाज की संरचनात्मक असमानताओं को चुनौती देने वाला था.

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-पंकज चौरसिया –

Dr Ram Manohar Lohia : डॉ राममनोहर लोहिया की कहानी 57 वर्षों के छोटे से जीवनकाल में अनवरत और सतत संघर्ष की कहानी है, जिसमें आठ बार ब्रिटिश सरकार की जेलों की यातनाएं और 17 बार स्वतंत्र भारत की जेलों की उत्पीड़न यात्रा शामिल है. उनका जन्म 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर जनपद में हुआ था. वह भारतीय समाजवादी आंदोलन के प्रमुख विचारकों में से एक थे, जिन्होंने राजनीति, खासकर जाति-आधारित राजनीति पर गहरा विश्लेषण किया. समाजशास्त्रियों ने जाति को केवल सामाजिक वर्गीकरण का रूप नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक शक्ति संरचना के रूप में देखा है. लोहिया ने इसी शक्ति संरचना को चुनौती देने का प्रयास किया. ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का उनका नारा सामाजिक गतिशीलता और सामाजिक न्याय की अवधारणा को बढ़ावा देने के लिए था, ताकि हाशिये पर खड़े समाज के सबसे बड़े वर्ग को सत्ता व संसाधनों में भागीदारी प्राप्त हो सके.

इस देश में डॉ लोहिया को सही मायनों में कभी समझा ही नहीं गया. उनके विचार और संघर्ष उस समय की पारंपरिक राजनीति और समाज की सीमाओं से परे थे. उनका दृष्टिकोण न केवल भारतीय राजनीति, बल्कि भारतीय समाज की संरचनात्मक असमानताओं को चुनौती देने वाला था. जब देश ने उन्हें समझा, तब लोहिया अचानक हमसे विदा हो गये. हां, जाते-जाते उन्होंने अपनी असाधारण राजनीतिक दृष्टि और सामाजिक न्याय की गहरी समझ लोगों के दिलों में छोड़ दी. आज देश के हर राजनीतिक दल, जाने-अनजाने, लोहिया के विचारों से लैस दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि लोहिया ने भारत के जिस बड़े तबके को राजनीति का केंद्र बनाया था, आज वह वैसे ही बड़े प्रश्न के रूप में दिखाई दे रहे हैं. उनके विचार समकालीन भारत की जाति-राजनीति में भी गहराई से जुड़े हुए हैं. सो उनके जन्मदिवस पर उनके विचारों पर चर्चा जरूरी हो जाती है.

हालांकि, वह अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे, क्योंकि उसी दिन भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया था.
जब 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं, तब ओबीसी को एक समान श्रेणी के रूप में देखा गया था. पर वर्ष 2000 के बाद स्पष्ट हो गया कि ओबीसी के भीतर भी असमानता मौजूद है, जिसमें अतिपिछड़ा वर्ग विशेष रूप से उपेक्षित है. अतिपिछड़े वर्ग के मुद्दे को प्रमुखता से उठाना और उनके लिए विशेष आरक्षण की मांग करना आज की सामाजिक और राजनीतिक बहस का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है. दलित, आदिवासी और ओबीसी समूहों में नये सामाजिक आंदोलन उभर रहे हैं, जो लोहिया के विचारों से प्रेरित हैं. जाति केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि समाज में समानता स्थापित करने के लिए भी एक राजनीतिक मुद्दा बनी हुई है.

अतिपिछड़ा वर्ग को विशेष पहचान और आरक्षण के अधिकार देने के लिए लोहिया के ‘विशेष अवसर के सिद्धांत’ पर आधारित विचार आज भी समकालीन राजनीति में प्रासंगिक हैं. लोहिया की समाजवादी धारा से जुड़े कर्पूरी ठाकुर, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार आदि नेताओं ने इन प्रश्नों को हल करने की कोशिश की, पर वे पूर्णतः हल नहीं हो पाये, जिससे आरक्षण के वर्गीकरण और जाति-आधारित जनगणना की मांग तेज हो रही है. बिहार में नीतीश कुमार सरकार द्वारा कराये गये जाति आधारित सर्वेक्षण ने इस बहस को और अधिक प्रासंगिक बना दिया है. बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ओबीसी की कई जातियां सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त कर चुकी हैं, जिससे उन्हें संगठित होने में मदद मिली है. वहीं अतिपिछड़ी जातियां सामाजिक-राजनीतिक रूप से संगठित नहीं हो पायी हैं.


पहले से ही शैक्षिक और राजनीतिक पूंजी प्राप्त कर चुकी प्रभावशाली ओबीसी जातियां सत्ता की धारा में अपनी भागीदारी बढ़ा पायी हैं, जबकि अतिपिछड़ी जातियां इन संसाधनों से वंचित हैं. वे केवल शैक्षिक व राजनीतिक पूंजी से नहीं, सांस्कृतिक संसाधनों से भी वंचित हैं. अतिपिछड़ा वर्ग के लिए विशेष सशक्तिकरण और उनके अधिकारों की रक्षा की दिशा में लोहिया का दृष्टिकोण आज भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह वर्ग सामाजिक न्याय के सबसे निचले स्तर पर खड़ा है. इनका कोई प्रभावशाली नेतृत्व विकसित नहीं हो सका और राजनीतिक दलों ने इन्हें केवल ‘वोट बैंक’ के रूप में इस्तेमाल किया, जिससे इनकी आत्मनिर्भरता बाधित हुई. इनमें राजनीतिक संगठन का अभाव इसका संकेत है कि यह समूह अब भी अपनी पहचान को संगठित रूप में स्थापित नहीं कर सका है. लोहिया के विचारों ने भारतीय जाति-राजनीति को नया रूप दिया था, पर अतिपिछड़ों का प्रश्न अधूरा रह गया था. अब यह वर्ग अपने राजनीतिक प्रश्नों को तेजी से उठा रहा है. जब तक इन्हें स्वतंत्र राजनीतिक नेतृत्व, पहचान और नीति-निर्माण में भागीदारी नहीं मिलेगी, तब तक ‘सामाजिक न्याय’ का लोहियावादी सपना अधूरा ही रहेगा.


आज जब हम समावेशी राजनीति की बात करते हैं, तब लोहिया का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है. उन्होंने जो प्रश्न उठाये, वे आज भी सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा हैं, खासकर जब हम महिलाओं, दलितों, पिछड़ों और अन्य हाशिये के समूहों के लिए समान अवसरों की बात करते हैं. उनकी सोच ने भारतीय राजनीति और समाज को समझाया कि सामाजिक न्याय और समावेशन केवल राजनीति में प्रतिनिधित्व से नहीं, समाज के हर स्तर पर उन वर्गों को अवसर देने से आता है, जो उपेक्षित और शोषित रहे हैं. इतने वर्षों बाद जब देश की राजनीति में कई बदलाव आ चुके हैं, आज भी नये सिरे से लोहिया की आवश्यकता महसूस की जा रही है, विशेष रूप से सामाजिक और आर्थिक न्याय की राजनीति के संदर्भ में.

उनकी विचारधारा का प्रभाव आज की समावेशी और न्यायपूर्ण राजनीति में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जिसमें दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और सशक्तिकरण की आवश्यकता महसूस हो रही है. भविष्य का इतिहास सिद्ध करेगा कि आज के परिवर्तनों में लोहिया की भूमिका क्या रही है, उनके विचारों ने कैसे समाज में संरचनात्मक असमानताओं और अन्याय को चुनौती दी. लोहिया एक ऐसे इतिहास पुरुष बन गये हैं, जिनका महत्व जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा, बढ़ता जायेगा. उनके विचार और संघर्ष उन आंदोलनकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं, जो समान, न्यायपूर्ण और समावेशी समाज की ओर बढ़ रहे हैं. (ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)

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