Canada News : लोकतांत्रिक रंगमंच में बहुत कम आयोजनों ने इतनी उत्सुकता जगायी, जितनी कि हाल ही में कनाडा के संघीय चुनाव में जगी. वैश्विक आर्थिक झटकों और राष्ट्रवादी गर्वोक्तियों की पृष्ठभूमि के चुनावी मुकाबले में विनीत टेक्नोक्रैट से लिबरल पार्टी के नेता बने मार्क कार्नी को मामूली जीत हासिल हुई. कनाडा के इस चुनाव में सिर्फ घरेलू राजनीति मुद्दा नहीं थी. इस चुनाव में पार्टी और प्रत्याशियों के प्रदर्शन को देखा गया. पियरे पॉलिएव के नेतृत्व में कंजर्वेटिव्स ने धूम-धड़ाके के साथ चुनाव अभियान की शुरुआत की थी, पर आखिर में पार्टी को शर्मनाक ढंग से बाहर होना पड़ा. विवादों में रुचि होने, अलगाववादी तत्वों से जुड़ने और भारतीय हिंदुत्व के साथ खड़े होने के रहस्य भरे प्रयास के कारण कार्नी को मध्यमार्गी विचारधारा वाले मतदाताओं का समर्थन मिला. हालांकि कार्नी की पार्टी के जिस चुनाव अभियान को शुरू-शुरू में अप्रतिरोध्य बताया गया, बाद में वह विचारधारात्मक अपच की कहानी बन गया.
लेकिन जिस शख्सियत के लिए चुनावी नतीजा सबसे अफसोसनाक रहा, वह जगमीत सिंह हैं. एनडीपी का यह खालिस्तान समर्थक नेता, जिसे लंबे समय तक कनाडा के सिखों की भावनाओं का प्रतीक माना जाता था, बर्नाबी सेंट्रल की अपनी सीट भी हार गया. उनकी पार्टी की सीटों का आंकड़ा 25 से घटकर एक अंक तक सिमट गया और 1993 के बाद पहली बार पार्टी के राष्ट्रीय पार्टी का आधिकारिक दर्जा भी छिन गया. जगमीत सिंह की भारत-विरोधी टिप्पणियां, जिनमें खालिस्तानी अलगाववाद को समर्थन देने के अलावा 2023 में हुई हरदीप सिंह निज्जर की हत्या की तीखी आलोचना भी थी, भले ही समान विचारधारा वाले लोगों के बीच सुनी जाती रही हों, लेकिन चुनाव में इससे पार्टी को भारी नुकसान हुआ.
मतदाताओं ने भड़काऊ टिप्पणियों के बजाय शांति को और शिकायत की जगह प्रशासनिक सोच को तरजीह दी. अपनी सारी प्रतीकात्मकता के बावजूद जगमीत सिंह मुख्यधारा की राजनीति में विफल साबित हुआ. अब भारतीय-कनाडाई प्रवासियों की बात करते हैं. करीब 14 लाख की आबादी वाले इस समुदाय के वोटों का बड़ा हिस्सा मध्यमार्गी कार्नी को मिला. भारतीय मूल के रिकॉर्ड 65 प्रत्याशी इस चुनाव में जीते, जिनमें से 20 लिबरल पार्टी से थे. जिन भारतवंशियों ने अपनी सीट बरकरार रखी, उनमें अनिता आनंद, कमल खेड़ा, परम बैंस और सुख धालीवाल प्रमुख रहे.
अलबत्ता जगमीत सिंह की हार को ज्यादा बड़े राजनीतिक संदेश की तरह देखा जा रहा है. भारतवंशी मतदाताओं द्वारा दिया गया संदेश बिल्कुल स्पष्ट है : अपनी लड़ाई में हमें इस्तेमाल करना बंद करें. हम आपके द्वारा इस्तेमाल होने वाली चीज नहीं हैं. हम कनाडा के नागरिक पहले हैं, भावना का मामला उसके बाद आता है. यह बदलाव बहुत महत्वपूर्ण है. वर्षों से भारतीय राजनीतिक वर्ग कनाडा के प्रवासी भारतीय समुदाय को सॉफ्ट पावर टूल की तरह इस्तेमाल करता था. लेकिन इस बार के चुनाव में भारतवंशियों ने अपने इस्तेमाल होते जाने के सिलसिले को पलट दिया.
इस चुनाव में अमेरिकी डर जितना हावी रहा, उतना शायद ही इससे पहले कनाडा के किसी चुनाव में देखा गया हो. उत्तरी अमेरिका की भू-राजनीति में आक्रामक ट्रंपवाद का खासा असर देखा जा सकता है. उनकी आक्रामक टैरिफ रणनीति और अप्रत्याशित धमकियों ने कनाडा के मतदाताओं की चिंता बढ़ा दी. नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में मतदाताओं ने कार्नी के सतर्क राष्ट्रवाद का रास्ता चुना. इस स्थिति ने भारत-अमेरिका-कनाडा के रिश्तों को उलझा दिया है. हथियारों के सौदों, योग कूटनीति और साझा तौर पर चीनी आक्रामकता के तिरस्कार के कारण भारत ट्रंप का दुलारा बना हुआ है. लेकिन ओटावा (कनाडा की राजधानी) अब वाशिंगटन की कूटनीति में उतना महत्व नहीं रखता.
बेशक हिंद-प्रशांत तनाव के मौजूदा दौर में क्वाड की प्रासंगिकता कहीं ज्यादा बढ़ गयी है, लेकिन भारत के कथित हस्तक्षेप पर कनाडा के क्षोभ को देखते हुए अब सतर्कता से कदम बढ़ाने की जरूरत है. भारत के लिए इस चुनाव को एक अवसर की तरह देखा जाना चाहिए. जगमीत सिंह के राजनीतिक परिदृश्य से लगभग अदृश्य हो जाने और उनकी पार्टी एनडीपी को उसका कद दिखा दिये जाने के बाद कनाडा के भारतवंशियों की राजनीति से भारत-विरोधी शिकायत और रुखापन गायब हो गया है. अब जरूरत इस बात की है कि फुसफुसाहटों को शब्दों में और अनुमानों को प्रतिबद्धता में बदला जाए.
सार्वजनिक तौर पर यह बताकर भी, कि नयी दिल्ली को ओटावा के आंतरिक मामलों से कोई लेना-देना नहीं, कनाडा के इस आरोप को ध्वस्त किया जा सकता है कि भारत उसके मामलों में दखल देता है. ब्रैम्टन में बॉलीवुड फेस्टिवल, दिल्ली में व्यापार सम्मेलन और भारत-कनाडा यूनिवर्सिटी फेलोशिप जैसे कार्यक्रम ही द्विपक्षीय रिश्तों की ठोस बुनियाद हो सकते हैं. कार्नी आक्रामक नहीं हैं, न ही वह आवेशपूर्ण राजनीति करते हैं. इस कारण वह नरेंद्र मोदी के आदर्श प्रतिपक्षी हो सकते हैं, जो दिखावे की कूटनीति में ज्यादा विश्वास करते हैं. कार्नी की प्रमुख चुनौती ट्रंप की अविश्वसनीय और अप्रत्याशित राजनीति से सामंजस्य बिठाने की होगी. ऐसे ही भारत की चुनौती कार्नी की मध्यमार्गी राजनीति के साथ सजग तालमेल बिठाते हुए उन संशयवादी भारतवंशियों को रास्ते से दूर करने की है, जो अब तक खुद को द्विपक्षीय संबंधों के स्वयंभू राजदूत समझते आये थे.
उम्मीद करनी चाहिए कि इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में मोदी और कार्नी के बीच की गर्मजोशी महज औपचारिकता नहीं होगी. यह दोतरफा कूटनीति में नयी शुरुआत होगी, जिसकी बुनियाद जलवायु सहयोग, आतंकवाद-विरोध, साइबर नीति और स्वच्छ तकनीक आदि होंगे. इससे बीजिंग को भी माकूल संदेश दिया जा सकेगा कि सॉफ्ट पावर ही अब नया हार्ड पावर है. यह तभी संभव हो सकेगा, जब दोनों देश प्रतीकात्मकता की राजनीति से बाहर निकलेंगे. कार्नी की चुनावी जीत राज्यारोहण नहीं है, न ही वह आलोचना के पात्र हैं. कनाडा के मतदाताओं ने अतिवाद को नकार दिया, लेकिन उन्होंने आत्मसंतुष्टि को गले नहीं लगाया. कार्नी को मिला जनादेश मामूली लेकिन अर्थपूर्ण है. भारत के लिए यह गोपनीय रणनीति बनाने का समय नहीं है. इसके बजाय यह कनाडा से दोटूक बात करने और व्यावहारिक कूटनीति निभाने का समय है. संदेह पर टिके द्विपक्षीय रिश्ते को अब साझा सम्मान से लिखा जाना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)