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अलमारी के शीशों में बंद किताबें

साहित्य उत्सव के माध्यम से कोशिश हो रही है कि साहित्यकारों को एक स्थायी मंच मिल सके और पठन-पाठन को लेकर कुछ हलचल बढ़ सके. दिल्ली के एक ऐसे ही आयोजन का फलक तो इतना बड़ा हो गया है कि उसका आयोजन एक स्टेडियम में किया जाने लगा है और उसमें प्रवेश के लिए टिकट लगने लगा है.

गुलजार साहब की किताबों पर लिखी एक कविता मुझे बेहद पसंद है. यह कविता किताबों से हमारे बदलते रिश्ते को दर्शाती है. ‘किताबें झांकती है बंद अलमारी के शीशों से, बड़ी हसरत से तकती हैं/ महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं, जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी/ अब अक्सर गुजर जाती हैं कम्प्यूटर के परदे पर, बड़ी बेचैन रहती है किताबें.’ हाल में टाटा स्टील ने प्रभात खबर के सहयोग से रांची में साहित्योत्सव का आयोजन किया. अब लगभग सभी शहरों में ऐसे आयोजन हो रहे हैं. महानगरों में तो ऐसे कई-कई आयोजन हो रहे हैं. दरअसल, लोगों की साहित्य के प्रति दिलचस्पी कम होती जा रही है. साहित्य उत्सव के माध्यम से कोशिश हो रही है कि साहित्यकारों को एक स्थायी मंच मिल सके और पठन-पाठन को लेकर कुछ हलचल बढ़ सके. दिल्ली के एक ऐसे ही आयोजन का फलक तो इतना बड़ा हो गया है कि उसका आयोजन एक स्टेडियम में किया जाने लगा है और उसमें प्रवेश के लिए टिकट लगने लगा है. हम भी चाहते हैं कि साहित्य उत्सव या किसी अन्य माध्यम से पढ़ने-लिखने को बढ़ावा मिले. ऐसे उत्सवों की जरूरत इसलिए भी है कि समाज की ओर से कोई पहल नहीं हो रही है. मैंने पाया कि इन उत्सवों का फलक बड़ा है. इसमें कविता-कहानी है, गीत-संगीत है, मेल-मुलाकात है और सबसे अहम विमर्श का अवसर है. यह लोगों को साहित्य और समाज से जुड़ने का अवसर देता है. इन उत्सवों में युवा वर्ग बड़ी संख्या में आ रहा है. साथ ही, ये उत्सव युवा लेखकों को एक मंच भी प्रदान कर रहे हैं.

हम सुनते आये हैं कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं. लेकिन अब इस रिश्ते में दरार पड़ गयी है. आजादी की लड़ाई हो या कोई बड़ा जन आंदोलन, सब में साहित्य और किताबों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. बावजूद इसके मौजूदा दौर में किताबों को अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. यह बात स्पष्ट है कि टेक्नोलॉजी के इस दौर में किताब पढ़ने की परंपरा कम हो गयी है और उसके विस्तार ने किताबों के सामने गंभीर चुनौती पेश की है. हालांकि ऑनलाइन बिक्री के आंकड़े बताते हैं कि हिंदी किताबों की बिक्री बढ़ी है. हिंदी भाषी महानगरों से तो ऐसा आभास होता है कि हिंदी का विस्तार हो रहा है, लेकिन थोड़ी दूर जाते ही हकीकत सामने आ जाती है. पहले हिंदी पट्टी के छोटे-बड़े शहरों में साहित्यिक पत्रिकाएं और किताबें आसानी से उपलब्ध हो जाती थीं, लेकिन परिस्थितियां बदल गयी हैं. हिंदी के जाने-माने लेखकों की भी किताबें आपको आसानी से नहीं मिलेंगी. छोटे शहरों में तो यह समस्या और गंभीर है. हिंदी भाषी क्षेत्रों की समस्या यह रही है कि वे किताबी संस्कृति को विकसित नहीं कर पाये हैं. नयी मॉल संस्कृति में हम किताबों के लिए कोई स्थान नहीं निकाल पाये हैं. एक दौर था, जब हर जिले में एक अच्छा पुस्तकालय हुआ करता था. ये ज्ञान और विमर्श के बड़े केंद्र हुआ करते थे, लेकिन आज अपने आसपास देख लीजिए, अच्छे पुस्तकालय बंद हो रहे हैं. यदि चल भी रहे हैं, तो उनकी स्थिति खस्ता है. एक दौर था, जब लोगों की निजी लाइब्रेरी होती थी और उनमें गर्व का भाव होता था कि उनके पास इतनी बड़ी संख्या में किताबों का संग्रह है. किताबों की अलमारी ड्राइंग रूम का अहम हिस्सा होती थी. अब क्राॅकरी ने उसकी जगह ले ली है. दरअसल, हम किताबों पर गर्व करने की संस्कृति को विकसित नहीं कर पाये. इसका सबसे बड़ा नुकसान विचारधारा के मोर्चे पर उठाना पड़ रहा है. चूंकि तकनीक ने पढ़ने की प्रवृत्ति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, इसका नतीजा है कि युवा किसी भी विचारधारा के साहित्य को नहीं पढ़ रहे हैं. बोलचाल की भाषा में कहें, तो वे व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट हो रहे हैं और नारों में ही उलझ कर रह जा रहे हैं. उन्हें विचारों की गहराई का ज्ञान नहीं हो पा रहा है. लब्बोलुआब यह कि लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़नी चाहिए, माध्यम कोई भी हो और विभिन्न विषयों पर विमर्श होना चाहिए.

मेरा मानना है कि नयी तकनीक ने किताबों का भला भी किया है और नुकसान भी पहुंचाया है. टेक्नोलॉजी ने लिखित शब्द और पाठक के बीच के अंतराल को बढ़ाया है. लोग व्हाट्सएप, फेसबुक में ही उलझे रहते हैं, उनके पास पढ़ने का समय ही नहीं है. किताबों को तो छोड़िए, लोग अखबार तक नहीं पढ़ते, केवल शीर्षक देख कर आगे बढ़ जाते हैं. हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि तकनीक ने अभिव्यक्ति का आयाम बदल दिया है. ऐसा नहीं कि लोगों ने पढ़ना बंद कर दिया है. तकनीक ने उसका माध्यम बदल दिया है. दुनियाभर में किताबों को डिजिटलाइज करने की पहल भी शुरू हुई है. युवा वर्ग किंडल, ब्लॉग, ई-पत्रिका के माध्यम से पढ़ना पसंद कर रहा है. माना जा रहा है कि भविष्य में अधिकतर लोग किताबें ऑनलाइन पढ़ना पसंद करेंगे. वे सिर्फ ई-बुक्स ही खरीदेंगे, उन्हें वर्चुअल रैक या यूं कहें कि अपने निजी लाइब्रेरी में रखेंगे और वक्त मिलने पर पढ़ेंगे. इंटरनेट ने किताबों को सर्वसुलभ कराने में मदद की है. ई-कॉमर्स वेबसाइटों ने किताबों को उपलब्ध कराने में बड़ी सहायता की है. किंडल, ई-पत्रिकाओं और ब्लॉग ने इसके प्रचार-प्रसार को बढ़ाया है. देश में भी नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी की स्थापना की गयी है. इसमें 12.5 लाख किताबें और 75 हजार पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध हैं. इसमें सीबीएसई, जेईई, नीट, यूपीएससी की तैयारी से लेकर शोध तक की सामग्री ऑनलाइन उपलब्ध है. इस लाइब्रेरी में आपको सभी किताबें डिजिटल या इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में मिलेंगी. इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसका इस्तेमाल आप दुनिया के किसी भी स्थान में बैठ कर कर सकते हैं. फिजिकल लाइब्रेरी के मुकाबले डिजिटल लाइब्रेरी में असीमित स्थान होता है. इसका बड़ा लाभ यह है कि डिजिटल लाइब्रेरी के माध्यम से हरेक की पहुंच किताबों तक हो जायेगी. चुनौती यह है कि जितना जल्दी हो सके, हमें तकनीक से एक रिश्ता कायम करना होगा.

और अंत में, जाने माने कवि कुंवर नारायण की किताबों से रिश्ते पर लिखी उनकी कविता की कुछ पंक्तियां- ‘नयी-नयी किताबें पहले तो दूर से देखती हैं/ मुझे शरमाती हुईं, फिर संकोच छोड़ कर/ बैठ जाती हैंं फैल कर, मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज पर/ धीरे-धीरे खुलती हैं वे, पृष्ठ दर पृष्ठ/ घनिष्ठतर निकटता, कुछ से मित्रता/ कुछ से गहरी मित्रता, कुछ अनायास ही छू लेतींं मेरे मन को/ कुछ मेरे चिंतन की अंग बन जातीं, कुछ पूरे परिवार की पसंद/ ज्यादातर ऐसी, जिनसे कुछ न कुछ मिल जाता…’

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