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बिहार में एनडीए की भारी जीत के मायने

Bihar Election : महागठबंधन घटक दल अपने साथ नये वोटर नहीं जोड़ते. मुस्लिम और यादव उनके कोर वोटर हैं. राजद का मतदाता वर्ग ही कमोबेश कांग्रेस और दूसरे घटक दलों का भी मतदाता वर्ग है. दूसरी ओर, एनडीए के घटक नये वोटर जोड़ते हैं. जैसे-भाजपा को ऊंची जातियों का समर्थन है. कुर्मी नीतीश कुमार के, तो कोयरी उपेंद्र कुशवाहा के वोटर हैं. एनडीए के बाकी घटकों को दलितों का समर्थन है.

Bihar Election : बिहार विधानसभा के चुनाव में एनडीए की जीत के कई कारण हैं. इसमें सबसे प्रमुख यह है कि जनता ने सरकार के पिछले पांच साल के कामकाज पर भरोसा किया. और दूसरा यह कि एनडीए ने जो चुनावी वादे किये, मतदाताओं ने उस पर भी भरोसा किया. यह चुनाव पहले त्रिकोणीय लगता था, जबकि बाद में दोध्रुवीय लगने लगा था. हालांकि शुरू से ही स्पष्ट था कि महागठबंधन पर एनडीए की थोड़ी बढ़त है.

महागठबंधन घटक दल अपने साथ नये वोटर नहीं जोड़ते. मुस्लिम और यादव उनके कोर वोटर हैं. राजद का मतदाता वर्ग ही कमोबेश कांग्रेस और दूसरे घटक दलों का भी मतदाता वर्ग है. दूसरी ओर, एनडीए के घटक नये वोटर जोड़ते हैं. जैसे-भाजपा को ऊंची जातियों का समर्थन है. कुर्मी नीतीश कुमार के, तो कोयरी उपेंद्र कुशवाहा के वोटर हैं. एनडीए के बाकी घटकों को दलितों का समर्थन है.

अगर आप आंकड़ों को देखें, तो महागठबंधन का जितना वोट प्रतिशत पिछले चुनाव में था, लगभग उतना ही इस चुनाव में भी है. वर्ष 2020 के चुनाव में महागठबंधन को 38 प्रतिशत वोट मिले थे. इस बार के चुनाव में उसका वोट 37.5 फीसदी के आसपास है. दूसरी ओर, एनडीए को पिछले विधानसभा चुनाव में 38.5 फीसदी वोट मिले थे. जबकि इस बार उसका वोट लगभग आठ प्रतिशत बढ़ कर 47 फीसदी के आसपास हुआ है. यानी पिछले चुनाव में जो मतदाता वर्ग दोनों गठबंधनों में से किसी के साथ नहीं था, उसे एनडीए इस चुनाव में अपनी ओर खींचने में सफल रहा है. यह उसकी विराट सफलता का कारण है.


जहां तक भाजपा की बात है, तो वह इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है. यह उसके लिए निश्चित तौर पर बहुत बड़ी उपलब्धि है. बिहार के चुनाव प्रभारी रहे धर्मेंद्र प्रधान मंजे हुए चुनावी रणनीतिकार के रूप में स्थापित हो चुके हैं. बिहार में उन्हें अपनी जिम्मेदारी निभाने में नीतीश कुमार के साथ शानदार ट्यूनिंग का भी लाभ मिला. प्लानिंग, माइक्रो मैनेजमेंट और सांगठनिक मजबूती के लिए लगातार काम करते रहने की आदत से भाजपा इस ऊंचाई पर पहुंची. हालांकि भाजपा ने अपने दम पर जिस तरह ओडिशा में सरकार बनायी, बिहार में अब भी उस तरह की स्थिति में वह नहीं है. भाजपा ने बिहार के पिछले चुनाव में, और इस चुनाव में भी भारी कोशिश की. पिछले चुनाव में वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी, तो इस चुनाव में वह सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है. लेकिन उसकी चुनौती बरकरार है. बिहार में उसका जनाधार तो बढ़ा है, लेकिन मंजिल अभी दूर है.


महागठबंधन का प्रदर्शन इस चुनाव में बहुत खराब रहा. राजद को इस चुनाव में लगभग 23 प्रतिशत वोट मिले, जो पिछले चुनाव से थोड़ा कम है, लेकिन इस चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों से अधिक वोट प्रतिशत उसका है. हालांकि उसने सबसे अधिक सीटों पर चुनाव भी लड़ा था. लेकिन परिवार में कलह तथा घटक दलों के साथ तालमेल में कमी के कारण यह संदेश गया कि महागठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं है. इस कारण राजद पीछे रह गया. यह नतीजा उसके लिए एक सबक है. अगले चुनाव में राजद को पॉजिटिव नैरेटिव लेकर उतरना होगा. उसे यह समझना होगा कि चुनाव सिर्फ अंकगणित के आधार पर नहीं लड़े जाते, उसके लिए सकारात्मक विमर्श भी जरूरी है.

पिछले विधानसभा चुनाव में राजद ने सकारात्मक नजरिये के साथ चुनाव लड़ा था, जिसका उसे लाभ मिला था. इस बार उसका नैरेटिव पूरी तरह निगेटिव था. इस कारण उसे विफलता हाथ लगी. महागठबंधन के दूसरे घटक दलों के लिए भी यह नतीजा एक सबक है, क्योंकि राजद की तरह उन्हें भी बराबर का नुकसान हुआ. वह कांग्रेस भी खड़ी नहीं हो सकी, जिसके बारे में इस बार कुछ उम्मीदें थीं. बिहार के इस चुनाव में प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी की बहुत चर्चा थी. शुरू में उनसे बहुत उम्मीदें भी थीं. नयी पार्टियां कई बार बहुत अच्छा प्रदर्शन करती हैं. खासकर दक्षिण भारत में इसके कई उदाहरण हैं. इस तरह पूर्वोत्तर के असम में असम गण परिषद ने शुरुआत में भारी सफलता हासिल की थी. ऐसे ही, दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलताएं हमें मालूम हैं. ध्यान रखने की बात है कि वही नयी पार्टियां अच्छा करती हैं, जिसके नेता का चेहरा जाना-पहचाना हो, जैसे कि दक्षिण भारत में फिल्म अभिनेताओं की राजनीतिक पार्टियां, या फिर पार्टी आंदोलन की उपज हो, जैसे-अगप या आप. जनसुराज के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है.

प्रशांत किशोर का कामकाज कुछ लोगों के लिए निश्चित रूप से जाना-पहचाना था, लेकिन आम लोगों के बीच उनका चेहरा जाना-पहचाना नहीं था. लिहाजा जब चुनाव ने गति पकड़ी और लोगों को समझ में आया कि जनसुराज पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होगी, तो उन लोगों ने भी उसका साथ छोड़ दिया, जो शुरू में प्रशांत किशोर के आकर्षण से उनके साथ जुड़े थे. दरअसल अपने यहां कोई भी मतदाता अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहता. इसलिए जो लोग जनसुराज का समर्थन कर रहे थे, उन्होंने भी उसे चुनाव में वोट देने से परहेज किया. नतीजतन पार्टी कोई छाप नहीं छोड़ पायी. इसके बावजूद इस चुनाव में प्रशांत किशोर का योगदान रहा. उन्होंने चुनाव का कैंपेन और उसका नैरेटिव बदला. रोजगार का मुद्दा उछालते हुए उन्होंने कहा कि बिहारियों को रोजगार के लिए बिहार से बाहर क्यों जाना पड़ता है? बिहार में उद्योग-धंधे क्यों नहीं शुरू होते? यह बहुत जरूरी मुद्दा था, जिसे उन्होंने उठाया. उसके बाद दूसरी पार्टियों ने भी इस मुद्दे को उठाना शुरू किया. जाहिर है, राजनीति में प्रशांत किशोर को थोड़ा समय देना पड़ेगा. तभी उन्हें सफलता हाथ लगेगी. कुल मिला कर, बिहार के चुनावी नतीजे का सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए संदेश है.


इस चुनाव में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को बहुत बड़ी सफलता मिली है. जनता ने उन पर भरोसा किया है. लिहाजा जब सरकार से उम्मीदें ज्यादा हैं, तो नयी बनने वाली सरकार के लिए चुनौतियां भी ज्यादा होंगी. सरकार ने जितने वादे किये हैं, उन सबको पूरा कर पाना मुश्किल काम होगा. सरकार अमूमन सारे वादे पूरे नहीं कर पाती. इसके अलावा नीतीश कुमार के स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी हैं. लेकिन जदयू को इस चुनाव में लगभग 19.5 प्रतिशत वोट मिला है, जो बहुत अधिक है. ऐसे में, नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

संजय कुमार
संजय कुमार
प्रोफेसर, विकासशील समाज अध्ययन पीठ, दिल्ली

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