लरजती हुई आवाज की खनक जब उस्ताद बड़े गुलाम की तान से निकलकर दिलों में उतरती थी, तो आप उस आवाज की खुशबू में संगीत को उस हवा में तैरते हुए महसूस कर सकते थे. ऐसा जादू था उस्ताद बड़े गुलाम अली खान की मखमली आवाज में. भारतीय शास्त्रीय संगीत के पटियाला घराने के वह ऐसे दमदार गायक थे, जिन्हें ठुमरी का बादशाह और पिछली शताब्दी के तानसेन का खिताब दिया गया था. मखमली आवाज के साथ दमदार गायन शैली के उस्ताद थे बड़े गुलाम अली खान. भारतीय शास्त्रीय संगीत में उन जैसी पहचान कोई दूसरा बना ही नहीं पाया. उन्होंने एक बार कहा था, ‘मेरा सारा संगीत रब की पुकार है.’ उन्हें सुनते हुए ऐसा महसूस भी होता था. अपने 60 वर्ष संगीत को देने वाले उस्ताद कहते थे, ‘मैंने अभी तो इस समंदर में कुछ भी नहीं किया है.’ उनके अनुसार, संगीत दुनिया को अमन का पैगाम तथा इंसान के अंदर की इंसानियत को खुशबू से भर देता है. उस्ताद बड़े गुलाम अली खान की संगीत शैली, विशेषकर ठुमरी गायन, को पंजाब अंग भी कहा जाता है. उस्ताद बड़े गुलाम अली खान ने ठुमरी गायन में पंजाबी लोक संगीत के रंग को शामिल कर उसे एक अलग ही पहचान दी.
दो अप्रैल को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के कसूर में पैदा हुए उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के पूर्वज 16वीं शताब्दी में अफगानिस्तान से आकर कसूर शहर में बस गये थे. वे रवायती सारंगी वादक व गवइये थे. उनके पिता अली बख्श खान कसूरी के नाम से जाने जाते थे. गुलाम अली खान को उनके चाचा काले खान ने पांच वर्ष की उम्र में ही संगीत की शिक्षा देनी शुरू कर दी थी. बाद में उन्होंने मुंबई में उस्ताद सिंधी खां से शिक्षा प्राप्त की. वर्ष 1947 में देश के विभाजन के बाद वे कुछ समय कराची, पाकिस्तान में रहे, परंतु उनका वहां मन नहीं लगा. वर्ष 1957 में भारतीय नागरिक बनने के बात तो उनका आसमान ऊंचा हो गया. चार भाइयों में वह सबसे बड़े थे. आज भी उनका खानदान संगीत की उनकी रिवायत को जिंदा रखे हुए है. उनके बेटे मुनव्वर अली खान के बेटे शाकिर अली खान और बेटी रजा अली खान आज भी इस घराने को अपनी यादों में समेटे हुए है जिसमें हिंदुस्तानी संगीत की महक शामिल है. उस्ताद बड़े गुलाम अली खान का गायन निरुक्त के बहराम खान और जयपुर ग्वालियर के बहलवा से मिलकर पटियाला तथा कसूर शैली की मिश्रण से उपजा था. उनके गाये गीतों में-‘आये ना बालम’, ‘नैना मोर तरस गये’, ‘याद पिया की आये’ समेत तमाम ऐसे गीत व ठुमरी शामिल हैं जिन्हें बार-बार सुनने का मन करता है. ‘मुगल-ए-आजम’ के ‘प्रेम जोगन बनके’ और ‘जब फिर शुभ दिन आयो राज दुलारा’- कुछ ऐसी बंदिशें और भारतीय संगीत में रची हुई मधुर रागिनियां हैं, जिन्हें वे बहुत इसरार के बाद फिल्म में गाने के लिए तैयार हुए थे. जहां लता मंगेशकर को एक गाने के पांच सौ रुपये मिले थे, वहीं के आसिफ ने मुगल-ए-आजम के एक गीत के लिए गुलाम अली को 25,000 रुपये में मनाया था.
खान साहब की पहली प्रस्तुति कोलकाता में 1935 में हुई थी. उसके बाद हैदराबाद, लखनऊ, लाहौर, दिल्ली और फिर उन्होंने पूरी दुनिया ही नाप दी. उन्होंने अपनी गायकी के जरिये ठुमरी की बादशाहत हासिल की. वे जब भी ठुमरी गाते, तो उसका जादू श्रोताओं के सिर चढ़कर बोलता. उनके अनुसार, संगीत कभी बंटवारा और नफरत नहीं चाहता, यह तो मोहब्बत की पुरवाई है. उन्होंने कहा था कि अगर हर घर में बच्चों को हिंदुस्तानी संगीत सिखा दिया जाता, तो भारत का बंटवारा नहीं होता. एक बार जब उन्होंने श्याम की बानगी का एक भजन गांधी जी के सामने गाया, तो गांधी जी ने खड़े होकर उनकी तारीफ की थी. जीवन के अंतिम दिनों में वे आंशिक रूप से लकवाग्रस्त हो गये थे. वर्ष 1968 में, हैदराबाद के बशीर बाग पैलेस में उन्होंने अंतिम सांस ली. संगीत के इस उस्ताद को 1962 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1967 में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप से नवाजा गया. वर्ष 1962 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. आज भी उनकी विरासत जिंदा है और इसका श्रेय उनके बेटे मुनव्वर अली की संतानों और संगीतकार अजय चक्रवर्ती को जाता है. खान साहब प्रयोगधर्मी थे और इसी कारण उन्होंने ठुमरी को उसकी जानी-पहचानी शैली से बाहर निकाल एक अलग शैली में ढाला. आज भी उनकी ठुमरी को, ठुमरी फेस्टिवल तथा सबरंग उत्सव के बहाने याद किया जाता है. बड़े गुलाम अली खान यदि आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं, तो अपनी अद्भुत गायन शैली और मखमली आवाज के कारण. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)