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असमंजस में पंजाब के मतदाता

पंजाब में पहली बार मुकाबला चौतरफा है. इस स्थिति में मतदाता के लिएaभी फैसला कर पाना आसान नहीं है. यह चुनाव राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है.

पंजाब में लंबे समय तक बारी-बारी से कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल का शासन रहा है. उनके अनुभवों को देखते हुए राज्य के मतदाताओं में उनसे बहुत अधिक उम्मीदें नहीं हैं कि इस बार सत्ता में आने के बाद ये पार्टियां कुछ अलग करेंगी. उन्हें नहीं लगता है कि भ्रष्टाचार, नशीले पदार्थों के कारोबार, विकास में गतिरोध आदि जैसी गंभीर समस्याओं का कोई ठोस समाधान ये दल कर सकेंगे.

इस वजह से दो अन्य पार्टियों- आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी- को कुछ सीटों का फायदा हो सकता है, लेकिन चूंकि ये पार्टियां नया प्रयोग हैं, इसलिए सभी या बहुत बड़ी तदाद में मतदाताओं का झुकाव एक साथ इनकी ओर नहीं हो सकता है. ऐसे में ये दल भी अपनी तरफ असरदार माहौल नहीं बना सके हैं.

एक कारक यह भी है कि किसान आंदोलन की वजह से पंजाब में भाजपा का विरोध ज्यादा हुआ है.कुछ सीटों पर स्थानीय प्रभाव रखनेवाले उम्मीदवार भी अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं. सो, पंजाब के लोगों में ऐसी राय नहीं बन सकी है कि कोई एक दल राज्य के लिए सबसे अच्छा विकल्प है. इस स्थिति में किसी एक राजनीतिक खेमे को स्पष्ट बहुमत मिलता हुआ नहीं दिख रहा है.

पंजाब के मालवा क्षेत्र में आम आदमी पार्टी का असर कुछ अधिक है. पिछले विधानसभा चुनाव में भी उसे अधिकतर सीटें वहीं से आयी थीं, लेकिन उसके भी दस विधायक पार्टी छोड़कर दूसरे दलों का दामन थाम चुके हैं. इसका भी प्रभाव अपेक्षित है, किंतु यह भी है कि आम आदमी पार्टी का जनाधार बढ़ा है और राज्य के अन्य इलाकों में भी उनका संगठन सक्रिय है, पर यह बाद में ही पता चल सकेगा कि सीटों के स्तर पर इन बातों का क्या असर होता है, क्योंकि हर सीट पर औसतन 18-20 उम्मीदवार खड़े हो रहे हैं,

तो वोटों का विभाजन भी होगा. इस कारक का प्रभाव अन्य प्रमुख पार्टियों पर भी होगा. सत्तारूढ़ कांग्रेस बाकी मुद्दों के अलावा पार्टी की अंदरूनी खींचतान से भी परेशान है. कैप्टन अमरिंदर सिंह पार्टी छोड़ चुके हैं और अब वे भाजपा गठबंधन के साथ हैं. पार्टी में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और राज्य इकाई के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच खींचतान भी चल रही है. जनता को इससे बहुत कोफ्त हो रही है, क्योंकि पार्टी के पास कोई स्पष्ट नीति तो है नहीं कि वह लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सके.

जब कांग्रेस के भीतर ही नेता एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं तथा अपने गुट के लिए अधिक टिकट हासिल करने की जुगत में लगे हुए हैं, तो मतदाताओं में खीझ होना स्वाभाविक है. यही कारण है कि कांग्रेस को सीटों का नुकसान होता दिख रहा है.

राज्य में भाजपा के नेतृत्व में चौथा मोर्चा बना है, जिसमें कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस और सुखदेव सिंह ढींढसा की शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) सहयोगी दल हैं. कैप्टन कांग्रेस छोड़ कर आये हैं, तो ढींढसा पहले शिरोमणि अकाली दल में थे. यह अनुमान लगा पाना आसान नहीं है कि इस गठबंधन को कितनी सीटें हासिल होंगी, पर इतना तय है कि इस चुनाव के बाद पंजाब की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी अहम ताकत के रूप में स्थापित हो जायेगी.

हालांकि राजनीतिक विश्लेषक शिरोमणि अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को अपेक्षाकृत कम महत्व दे रहे हैं, पर यह समझा जाना चाहिए कि राज्य में इस गठबंधन का एक मजबूत आधार है और यह बहुत पहले से है. अकाली दल को पिछले चुनाव में बड़ा झटका लगा था, पर उस आधार पर इस बार के चुनाव को नहीं देखा जाना चाहिए.

इसमें अकाली दल का गठबंधन एक अहम खेमा है. यहां फिर इस बात का संज्ञान लिया जाना चाहिए कि पंजाब में पहली बार मुकाबला चौतरफा है. पहले मुख्य रूप से कांग्रेस और अकालियों में चुनावी लड़ाई हुआ करती थी. इस स्थिति में मतदाता के लिए भी फैसला कर पाना आसान नहीं है.

जहां तक पंजाब में चुनावी मुद्दों और बहसों की बात है, तो इस लिहाज से माहौल निराशाजनक ही माना जायेगा. जरूरी सवालों की जगह बेकार की चर्चा हो रही है. कांग्रेस को देखें, तो कई दिनों तक यही मसला बना रहा कि मुख्यमंत्री पद का चेहरा कौन होगा. पार्टी के नेता और उनके परिजन आपस में ही एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में व्यस्त हैं. एक मसला हिंदू और सिख धर्म के पवित्र स्थलों पर अपमानजनक व्यवहार की घटनाओं से संबंधित है, जिनका इस्तेमाल असली मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए किया गया है.

पंजाब में नशीले पदार्थों का कारोबार और उनकी लत लंबे समय से गंभीर समस्या बनी हुई हैं, लेकिन इसका ठोस हल निकालने के बजाय पार्टियां एक-दूसरे पर आरोप लगाकर अपने कर्तव्य को पूरा कर रही हैं. आर्थिक रूप से राज्य अभी बेहद मुश्किल हालात से गुजर रहा है.

पंजाब जैसे छोटे से राज्य पर तीन लाख करोड़ रुपये का कर्ज है. इस कर्ज के ब्याज की अदायगी में राज्य का 20 फीसदी खर्च होता है. उद्योगों का पलायन हो रहा है. कृषि आय बहुत समय से ठहराव की गिरफ्त में है. पर्यावरण और पारिस्थितिकी का संकट गहराता जा रहा है. किसी भी दल ने चुनाव प्रचार के दौरान कोई ठोस आर्थिक नीति की घोषणा नहीं की है.

कोई भी दल इस बारे में बात नहीं कर रहा है कि शिक्षा और रोजगार की बेहतरी के लिए कोशिश होनी चाहिए. पंजाब के लोग अच्छे अवसरों की तलाश में विदेशों का रुख कर रहे हैं. पंजाब की अर्थव्यवस्था में योगदान की तुलना में पंजाब के लोग कनाडा की अर्थव्यवस्था में अधिक योगदान कर रहे हैं. मीडिया की स्थिति भी पार्टियों की तरह ही है. वहां भी राज्य के विकास पर चर्चा की जगह सतही मुद्दों को तरजीह दी जा रही है तथा जाति-धर्म से जुड़ी बातों पर बहसें हो रही हैं.

पंजाब एक सीमावर्ती राज्य है. यहां पाकिस्तान ने पहले अलगाववाद और हिंसा को बढ़ावा देने में भूमिका निभायी और अब वहां से नशीले पदार्थों व अन्य चीजों की तस्करी हो रही है. ऐसे संवेदनशील राज्य के चुनाव में इस पहलू पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए था. अब जब सभी पार्टियां एक-दूसरे पर आरोप लगाकर, जाति-धर्म के आधार पर तथा शुल्क कम करने या मुफ्त सुविधाएं देने, नगद भत्ते बांटने जैसे लोकलुभावन वादों से वोट जुटाने में लगी हुई हैं, तो मतदाताओं के लिए भी स्पष्ट निर्णय कर पाना आसान नहीं है. यह चुनाव पंजाब की राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है.(बातचीत पर आधारित).

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