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लोकतंत्र के लिए संवाद जरूरी

लोकतंत्र केवल निर्वाचित संसद और समय-समय पर चुनाव भर नहीं है. बहस और चर्चा के बिना लोकतंत्र बेमतलब है.

असम विधानसभा को संबोधित करते हुए लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला ने कहा, ‘लोकतंत्र बहस और संवाद पर आधारित होता है. पर सदन में चर्चा में लगातार अवरोध और समुचित उपस्थिति का अभाव चिंता का विषय है. सता पक्ष और विपक्ष के बीच असहमति स्वाभाविक हो, लेकिन असंतोष का परिणाम गतिरोध नहीं होना चाहिए.’ इस मुद्दे को उठाते हुए उन्हें हमारे सदनों के अध्यक्षों की भूमिका के बारे में भी आत्मचिंतन करना चाहिए.

प्रतिनिधि सभाएं और संसद स्व-शासित संस्थाएं हैं, फिर भी उन्हें शासित करने की आवश्यकता होती है. भारत में और अन्यत्र भी ये निर्वाचित संस्थाएं सरकार की अन्य शाखाओं के बरक्स अपनी स्वतंत्रता की जी-जान से रक्षा करती हैं. चूंकि सभापति भी सदन के सदस्यों द्वारा सीधे निर्वाचित होता है, वह हमारी राजनीति और राजनीतिक तंत्र का ही हिस्सा होता है.

सभापति कैसे अपना उत्तरदायित्व निभायेगा, यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है, लेकिन हमारी व्यवस्था में यह दुखद है कि मुख्य राजनीतिक कार्यकारी का प्रभाव इस कार्यालय पर बहुत अधिक होता है और अक्सर सभापति प्रभावशाली राजनेताओं के असर में आ जाता है. निश्चित ही सभापति प्रभावी हो सकता है और उचित कार्यवाही कर सकता है, भले ही इसे उसके नेता पसंद न करें.

ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं कि सभापति के माध्यम से विधायिका को सरकारें नियंत्रित करना चाहती हैं तथा विपक्षी सदस्यों को सदन से निष्कासित कर जनादेश और बहुमत के हिसाब को भी बदलना चाहती हैं. कई लोग मानते हैं कि यह सोचकर चर्चा को मंजूर या नामंजूर किया जाता है कि इससे सदन का माहौल गर्म हो जाए, जिससे या तो सदस्य बहिष्कार कर दें या निष्कासन को सही ठहराया जा सके.

ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस के स्पीकर चर्चा का संचालन करते हैं और यह तय करते हैं कि कौन इसमें भाग ले सकता है. नियम तोड़ने पर वे सदस्यों को दंडित भी करते हैं. हाल में हमने देखा कि किस तरह से स्पीकर सर लिंडसे हॉयल ने चर्चा में गतिरोध पैदा कर रहे प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन डपटते हुए कहा, ‘आप ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हो सकते हैं, लेकिन इस सदन का मुखिया मैं हूं और मैं आपको आदेश देता हूं कि आप बैठ जाएं.’

अन्य देशों की विधायिकाओं के विपरीत ब्रिटिश सभापति स्पष्ट रूप से निरपेक्ष बने रहते हैं और पद ग्रहण करते और छोड़ते समय अपनी पार्टी से संबंध तोड़ लेते हैं. आम तौर पर इस पद पर बने रहने के इच्छुक व्यक्ति को एक कार्यकाल से अधिक समय के लिए फिर से चुन लिया जाता है. दूसरी ओर, अमेरिकी प्रतिनिधि सभा के स्पीकर सक्रिय और पक्षधर बने रहते हैं तथा वह बहुमत प्राप्त दल के एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं.

इस प्रकार, ब्रिटिश प्रणाली की तर्ज पर होने के लिए लक्षित भारतीय प्रणाली अमेरिका की तरह बन गयी. लेकिन एक बड़ा अंतर भी है. अमेरिका में सचेतक (व्हिप) विधायिका को नियंत्रित नहीं करता. अभी हम देख रहे हैं कि राष्ट्रपति जो बाइडेन की ही पार्टी के सीनेटर जो मनचिन उनके प्रशासन के एक मुख्य विधेयक का विरोध कर रहे हैं.

लोकतंत्र केवल निर्वाचित संसद और समय-समय पर चुनाव भर नहीं है. बहस और चर्चा के बिना लोकतंत्र बेमतलब है. यह एक ऐसी शासन प्रणाली है, जो समझौते और सामंजस्य से चलती है. इसमें विविध पक्ष एक साझा लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं, जहां विचार-विमर्श से एक साझा सहमति और स्वीकारता बनती है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए सांस्थानिक व्यवस्था और संतुलन अनिवार्य शर्त हैं. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमारी संसद और विधायिकाएं ठीक से काम नहीं कर पा रही हैं. यह स्थिति बहुत समय से बनती आ रही थी और आज सदन देश की समस्याओं के समाधान के मंच होने से कहीं अधिक राजनीतिक अखाड़ा बन गया है.

पहली लोकसभा ने लगभग चार हजार घंटे काम किया था, जबकि 16वीं लोकसभा में महज 16 सौ घंटे काम हुआ. आइआइटी-मद्रास की डॉ जेसिका सिडन ने अपने शोध पत्र में संसद के दोनों सदनों में अहम मसलों पर सोच-समझ और धैर्य के साथ बहस के लिए जरूरी सांस्थानिक व्यवस्था की समीक्षा की है. वे लिखती हैं, ‘वर्तमान संसदीय प्रक्रिया की संरचना रचनात्मक चर्चा के विरुद्ध है.

इसमें चर्चा के विषयों तथा विकल्पों की अभिव्यक्ति व उन पर विचार की संभावना पर सरकार का बहुत अधिक नियंत्रण है तथा इससे सरकार व विपक्ष के सदस्यों के बीच गठबंधन की कोई संभावना कमोबेश समाप्त हो जाती है. ऐसे में समस्या को उठाने, समाधान सुझाने और मुद्दा आधारित गठबंधन बनाने के उत्तर दायित्व से विपक्ष भी मुक्त हो जाता है. देरी करना, ना ना चिल्लाना और कार्यवाही बाधित करना ही असंतोष को जाहिर करने के तरीके बचे हैं, तो प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने के लिए कहना मुश्किल है.’

हमारी राजनीति के गैर-विचारधारात्मक प्रतिस्पर्द्धा में बदलते जाने से संसद में चर्चा और बहस का अंत हुआ है. चौबीस घंटे चलनेवाले खबरिया चैनलों के विस्तार और उन पर होनेवाली शोरभरी निरर्थक बहसों ने इस प्रक्रिया को तेज ही किया है. संसद की बैठकें होती हैं, विधेयक भी पारित होते हैं और कानून भी बनाये जाते हैं, यह सब अधिकतर बिना चर्चा के होता है, जो जरूरी है और जिसकी हम अपेक्षा रखते हैं. केंद्रीय बजट पर भी शायद ही बहस होती है.

कई बार संसद समुचित उपस्थिति के बिना ही चलती है. सदन के भीतर से स्पीकर के चुनाव की परंपरा पर पुनर्विचार की जरूरत है. किसी सम्मानित और भरोसेमंद व्यक्ति, जैसे सेवानिवृत प्रधान न्यायाधीश, को स्पीकर बनाया जाना उचित होगा, जो इस सही और गलत की अधिक विवेकपूर्ण समझ ला सकता है. दल-बदल विरोधी कानून स्वतंत्र बहस और असंतोष को व्यक्त करने में बड़ी बाधा है.

यह कानून उस सच्चाई के प्रति अनादर है कि संसद और विधानसभाओं के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते हैं. यह कानून उन्हें निष्कासन के भय से व्हिप का गुलाम बना देता है, जिसके आतंक से सांसद कठपुतली भर हो जाते हैं और उनको पार्टी नेतृत्व की इच्छा के अनुसार ही काम करना होता है. हमारे देश में अधिकतर पार्टी नेतृत्व परिवारों और वंशों में निहित है. नेतृत्व या तो वंशानुगत है या फिर संस्था से इतर है. अब यहां से हम कहां जायेंगे? और, कहां हम इस मसले पर चर्चा और बहस करेंगे?

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