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डिफॉल्टरों पर नकेल

बैंकिंग व्यवस्था पर बोझ बन चुकी गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के मुद्दे पर सरकार की धीमी पहल आलोचनाओं के घेरे में रही है. गत दिसंबर के अंत तक एनपीए का बोझ 6.07 लाख करोड़ रुपये हो चुका है, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का हिस्सा 5.02 लाख करोड़ है. बैंकों के लाभ को निगल जानेवाले और […]

बैंकिंग व्यवस्था पर बोझ बन चुकी गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के मुद्दे पर सरकार की धीमी पहल आलोचनाओं के घेरे में रही है. गत दिसंबर के अंत तक एनपीए का बोझ 6.07 लाख करोड़ रुपये हो चुका है, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का हिस्सा 5.02 लाख करोड़ है.

बैंकों के लाभ को निगल जानेवाले और लगातार विकराल होते एनपीए ऋण जारी करने की प्रक्रिया के साथ अर्थव्यवस्था की गति को भी अवरुद्ध कर रहे हैं. यही वजह है कि बैंक ब्याज दरों में कटौती नहीं कर पा रहे हैं. इससे निवेश का प्रभावित होना स्वाभाविक है. पूर्व आरबीआइ गवर्नर रघुराम राजन ने इसे बेहद चुनौतीपूर्ण मानते हुए बैंकों को मार्च, 2017 तक परिसंपत्तियों के विवरण को व्यवस्थित करने का निर्देश दिया था.

इसमें शक नहीं कि एनपीए के बढ़ते संकेंद्रण में भ्रष्टाचार पोषित व्यवस्था की भूमिका अहम है. अपर्याप्त और सुस्त कानूनी व्यवस्था के कारण बैंक वसूली कर पाने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. किसी कंपनी की वित्तीय स्थिति और क्रेडिट रेटिंग की विधिवत जांच-पड़ताल के बगैर उदारतापूर्वक ऋण बांटने और प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए असुरक्षित ऋण जारी करने जैसे कारणों की वजह से बैंकों के एनपीए में तेजी आयी है.

दूसरी ओर, जांच एजेंसियों के भय से एनपीए मुद्दों को हल करने के लिए बैंक सेट्लमेंट स्कीम और एसेट रिकंस्ट्रक्शन करने से कतरातेे हैं. मनमाने बकायादारों पर लगाम के लिए आरबीआइ को मजबूत करने के मकसद से कैबिनेट द्वारा मंजूर किया गया अध्यादेश बेहद जरूरी और एक स्वागतयोग्य पहल है. बैंकिंग नियमन कानून की धारा-35ए में संशोधन के लिए प्रस्तावित अध्यादेश को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा गया है.

हालांकि, आरबीआइ ने हाल के वर्षों में फंसे हुए ऋणों से निपटने के लिए कॉरपोरेट ऋण पुनर्गठन व्यवस्था (सीडीआर), ज्वाइंट लेंडर्स फोरम के गठन, फंसे ऋणों की वास्तविक तसवीर पेश करने के लिए बैंकों पर दबाव बनाने और डिफॉल्टरों पर नियंत्रण के लिए स्ट्रेटजिक डेट रीस्ट्रक्चरिंग (एसडीआर) स्कीम जैसे ठोस कदम उठाये हैं, लेकिन इनके अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं आ सके हैं.

वर्ष 1991 के बाद हम बाजार आधारित व्यवस्था का रुख कर चुके हैं, ऐसे में वर्तमान व्यवस्था और समय की मांग के अनुरूप कानूनों और नियमों में परिवर्तन जरूरी है. बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था का बेहद महत्वपूर्ण अंग हैं. बैंकों पर सार्वजनिक बचत के प्रबंधन की जिम्मेवारी है. ऐसे में लोग अपनी बचत का वाजिब लाभ ले सकें, इसके लिए सख्त और पारदर्शी तंत्र की निगरानी का होना जरूरी है.

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