विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
महारानी पद्मिनी की कथा को आधार बना कर बननेवाली फिल्म का विवाद राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक फैल गया. राजपूतों को लग रहा है कि उनके इतिहास से छेड़छाड़ करके उन्हें नीचा दिखाने का कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है. उन्हें यह भी लग रहा है कि उनके इतिहास को गलत रूप में प्रचारित किया जा रहा है, इसलिए अब वे उसे ठीक करना चाहते हैं. इसका ताजा उदाहरण महाराणा प्रताप से जुड़ी वह पुस्तक है, जिसमें यह दावा किया गया है कि हल्दीघाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप नहीं हारे थे, हार अकबर की सेना की हुई थी.
‘राष्ट्ररत्न महाराणा प्रताप’ नामक यह पुस्तक राजस्थान भाजपा के तीन बड़े नेताओं, पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री, स्कूल शिक्षा मंत्री और नगरीय विकास मंत्री की सिफारिश पर ‘रेफरेंस बुक’ के रूप में स्नातक-पूर्व विद्यार्थियों के लिए विश्वविद्यालय द्वारा सूची में शामिल कर ली गयी है. मांग तो इतिहास की पुस्तकों को बदलने की भी की जा रही है. यदि कोई फिल्मकार हमारे इतिहास को गलत रूप से चित्रित करता है, या फिर इतिहास के नाम पर कुछ गलत तथ्य पढ़ाये जा रहे हैं, तो इसका विरोध होना चाहिए, लेकिन ठोस आधारों पर होना चाहिए. इस बात का ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि भावनाओं के आधार पर इतिहास के साथ छेड़-छाड़ न हो.
महाराणा प्रताप की गाथा हमारे इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय है. अपनी आजादी, अधिकारों और अस्मिता की रक्षा के लिए उनका संघर्ष अनूठा था. इसीलिए वे हमारे इतिहास पुरुष हैं. ऐसे नायकों की कीर्ति गाथा को महिमामंडित करने के लिए इतिहास बदलने की जरूरत नहीं है. उनका संघर्ष, उनकी वीरता, उनका शौर्य ही उनकी महानता को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है.
इतिहास की पुस्तकों के अनुसार लगभग साढ़े पांच सौ साल पहले, 18 जून 1576 को, हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ था. कुल चार घंटे चले इस युद्ध में महाराणा प्रताप को पीछे हटना पड़ा था. यह बात दूसरी है कि शीघ्र ही उन्होंने कुंभलगढ़ पर फिर अधिकार कर लिया.
आज जो विवाद इतिहास को बदलने के संदर्भ में चल रहा है, उस पर इस दृष्टि से भी विचार किया जाना जरूरी है कि विवाद के पीछे मंतव्य क्या है? अतीत की अच्छाइयों पर गर्व करना गलत नहीं, पर यह कतई सही नहीं है कि हम गर्व करने के लिए तथ्यों को ही बदल दें.
महाराणा प्रताप हिंदू थे और अकबर मुसलमान, लेकिन हल्दीघाटी की लड़ाई हिंदू-मुसलमान की लड़ाई नहीं थी. इस लड़ाई में अकबर की सेना का नेतृत्व राजा मानसिंह कर रहे थे और शेरशाह सूरी का वंशज हकीम खान सूरी महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ रहा था. इतिहास को इतिहास की दृष्टि से ही देखना चाहिए, उसे आज के संदर्भों के चश्मे से देखने का मतलब एक विकृत छवि को ही देखना होगा. लेकिन, आज की राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार इतिहास को देखने अथवा बदलने का अर्थ सिर्फ सच्चाई को झुठलाने की कोशिश करना ही नहीं होगा, अपने आगे के रास्ते को मुश्किल बनाना भी होगा.
सांप्रदायिकता के चश्मे से इतिहास को देखने-दिखाने की कोशिशें हमारे देश के ताने-बाने को ही कमजोर बना रही हैं. यदि हम आज नहीं चेते, तो कल बहुत देर हो जायेगी. महाराणा प्रताप को महान दिखाने के लिए अकबर के कद को छोटा करने की कोई जरूरत नहीं है. पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करके हम युवा मस्तिष्कों को प्रदूषित ही करेंगे.
जिस तरह हमारे यहां कुछ लोग पाठ्यपुस्तकों में बदलाव की वकालत कर रहे हैं, उसी तरह पाकिस्तान में भी हो रहा है. पाकिस्तान के स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है कि हिंदुओं-राजपूतों के साथ रिश्ते बना कर अकबर ने इस्लाम को नुकसान पहुंचाया था. लगता है, अकबर की सामंजस्य की नीति कहीं भी सांप्रदायिक ताकतों को रास नहीं आ रही. इसीलिए पाकिस्तान की पाठ्य-पुस्तकों में अकबर को नकारा जा रहा है. और शायद इसीलिए भारत के हिंदुत्ववादियों को भी अकबर पसंद नहीं.
यह कट्टरता इतिहास की दुश्मन नहीं है, यह हमारे आनेवाले कल की दुश्मन है. इसलिए, इस कट्टरता से प्रभावित निर्णयों से किसी बेहतरी की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए. इतिहास को नकार कर, या बदल कर, हम स्वयं अपने आप को ही ठगेंगे. जरूरत इतिहास से सीखने की है.
अकबर और महाराणा प्रताप हमारा इतिहास हैं, इतिहास के नायक हैं. उन्हें हिंदू या मुसलमान नायक के रूप में देखने का अर्थ अंगरेज इतिहासकारों की नजर से उन्हें देखना होगा. न दोनों की तुलना की आवश्यकता है, न किसी को कम महान दिखाने की. इतिहास नायकों के कृतित्व से बनता है. आवश्यकता उनके कृतित्व को समझ कर उससे कुछ सीखने की है. तभी हम ऐसा इतिहास रच पायेंगे, जो आनेवाले कल की प्रेरणा बनेगा.