डॉ गोपाल कृष्ण
सामाजिक कार्यकर्ता
वयोवृद्ध गांधीवादी और पत्रकार देवदत्त 27 जनवरी की सुबह संसार को अलविदा कह गये. स्वतंत्रता की घोषणा के बाद लाहौर से दिल्ली आये देवदत्त जी महात्मा गांधी की हत्या के समय बिरला भवन के प्रांगण में उपस्थित थे.
कुछ साल पहले उनके साथ सभ्यतागत संकट, स्वतंत्रता, विभाजन, गांधीजी की हत्या और वैश्विक अर्थव्यवस्था आदि पर उनसे हुई लंबी बातचीत मेरी यादों में ताजा है. उनका आग्रह था कि आजादी और बंटवारे पर सतत चिंतन-मनन होना चाहिए. गांधीजी को मसीहा के रूप में माननेवालों से उनकी असहमति थी. देवदत्तजी की नजर में गांधी एक साधारण मनुष्य थे, जो कुछ असाधारण सभ्यतागत प्रयोग करने का साहस रखते थे. उन्हें महामानव बता कर दीवारों पर सजाने की रस्मी प्रवृत्ति देवदत्तजी को नहीं भाती थी. विभाजन के दौरान हुई भयानक हिंसा को याद कर वे भावुक हो जाते थे. उस नरसंहार को वे ‘भारतीय संस्कृति की वीर गाथा’ कह कर कटाक्ष करते थे.
डब्ल्यूएचअो की नौकरी को ठुकरा कर पत्रकारिता करनेवाले देवदत्तजी ने ‘प्वॉइंट ऑफ व्यू’ नामक पत्रिका का प्रकाशन भी किया था और कई अखबारों से बतौर लेखक जुड़े रहे थे. वर्तमान परिवेश पर उनकी राय यह थी कि एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था स्थापित हो चुकी है, जिसमें किसी देश के संसाधनों पर नियंत्रण के लिए ताकत के इस्तेमाल की जरूरत खत्म हो गयी है. वे मानवीय और सांस्कृतिक तथा आर्थिक और राजनीतिक भूमंडलीकरण में अंतर करते हुए सत्ता और ज्ञान के संबंध की पड़ताल के हिमायती थे. वे मानते थे कि वैश्विक अर्थव्यवस्था ‘ज्ञान के नायकत्व’ द्वारा संचालित है.
विश्व व्यापार संगठन पर लिखी अपनी पुस्तक ‘स्वदेशी स्वराज ही क्यों’ में उन्होंने एक ‘अदृश्य अंतरराष्ट्रीय सरकार’ के उभार से होनेवाले खतरे को चिह्नित किया है. उम्र के आखिरी पड़ाव में भी वे आज के दौर में लोकतंत्र की दुर्दशा के बारे में सचेत और चिंतित थे. वैश्विक आर्थिक ताकतों को नियंत्रित कर पाने में लोकतांत्रिक व्यवस्था की असफलता पर भी उन्होंने लिखा है और रेखांकित किया है कि ऐसी ताकतें देशव्यापी आंदोलनों से अप्रभावित रहती हैं.
इतिहास की गहन समझ रखनेवाले देवदत्तजी 15वीं और 18वीं-19वीं सदी के आर्थिक वैश्वीकरण तथा आज के भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं की कुछ महत्वपूर्ण समानताओं की ओर अक्सर संकेत करते थे. इस्ट इंडिया कंपनी को व्यापारिक और सैनिक छूटों तथा आज दी जा रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपारदर्शी और अनियंत्रित छूटों को वे एक ही सिलसिले की कड़ी मानते थे.
आज जब आर्थिक भूमंडलीकरण के पैरोकार कहीं राष्ट्रहित के नाम पर ‘अमेरिकी खरीदो, अमेरिकी को काम दो’ जैसे मंत्रों का जाप कर रहे हैं और कहीं ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे भी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तरह यह वादा कर रही हैं कि वे अपने जीवन-शैली को दूसरे देशों पर नहीं थोपेंगी, तो यह मलाल होता है कि हमारे बीच देवदत्तजी जैसा विचारक नहीं है. वे होते तो जबरन अनुमति लेने और देने के सिलसिले पर फिर विचार करने की वकालत करते. वे ‘भारतीय खरीदो, भारतीय को काम दो’ का चुनौतीपूर्ण तर्क भी गढ़ते.
पुरानी और आधुनिक ज्ञान पद्धतियों के सत्ता से रिश्तों की पड़ताल कर वैश्विक आर्थिक ताकतों को लोकतंत्र के अधीन करने की जुगत लगाना मानवता और प्रकृति को बचाने के लिए बुजुर्ग, सजग और संवेदनशील पत्रकार की चेतावनी और सलाह को सार्थक करना होगा. आज जब पत्रकारिता येन-केन-प्रकारेण यश और धन हासिल करने के लोभ से घिरी हुई है, देवदत्तजी जैसे पत्रकारों की मिसाल इस महत्वपूर्ण पेशे की असली जिम्मेवारी की याद दिलाती रहेगी.