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बैलों की याद
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार जब से जलीकट्टू को लेकर विवाद हुआ, तब से अरसे से उपेक्षित बेचारा बैल चर्चा में आ गया. उसके चित्र टीवी के परदे पर छा गये. लोगों के हाथों में पोस्टर-बैनर दिखाई देने लगे. मुखौटे नजर आने लगे. जगह-जगह से बैल पालनेवालों की कथाएं दिखाई-बताई जाने लगीं. जलीकट्टू पर रोक के […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
जब से जलीकट्टू को लेकर विवाद हुआ, तब से अरसे से उपेक्षित बेचारा बैल चर्चा में आ गया. उसके चित्र टीवी के परदे पर छा गये. लोगों के हाथों में पोस्टर-बैनर दिखाई देने लगे. मुखौटे नजर आने लगे. जगह-जगह से बैल पालनेवालों की कथाएं दिखाई-बताई जाने लगीं.
जलीकट्टू पर रोक के विरोधियों ने यह भी कहा कि बैलों से जुड़ा यह खेल, तमिलनाडु के किसानों और तमिल संस्कृति का हमेशा से हिस्सा रहा है. बैल पालनेवाले न केवल उन्हें पालते हैं, बल्कि उनकी पूजा करते हैं. यह भी कहा गया कि अगर जलीकट्टू पर रोक लगी रही तो, बैलों की एक विशेष प्रजाति खत्म हो जायेगी, जिसे खास तौर से पोंगल पर खेले जानेवाले इसी खेल के लिए पाला-पोसा जाता है.
अब खेतों को हल के सहारे जोतते बैल और उनके पीछे चलते किसान बहुत कम नजर आते हैं. ट्रैक्टरों ने बैलों को खेतों और हमारे कृषि जीवन से बेदखल कर दिया है. एक समय ऐसा रहा है कि किसी किसान के धनी होने की पहचान उसके अहाते में बंधे बैलों से तय होती थी. जितने बैल, उतनी ही अधिक खेती. शिव के वाहन नंदी की पूजा यूं ही नहीं थी. बैल हमारे लोकमानस और लोककथाओं का अंग रहे हैं. जहां भी पुरातत्व साक्ष्य खोजे जाते हैं, अकसर वहां बैल की मूर्तियां और भित्ति चित्र मिलते हैं.
बैलों से किसान का कितना आत्मीय संबंध होता था, इसे यदि देखना हो तो बांग्ला के मशहूर और बेहद मानवीय मूल्यों को उकेरनेवाले कथाकार शरतचंद्र की कहानी ‘महेश’ पढ़ी जा सकती है. इसमें एक गरीब मुसलमान किसान का बैल है- महेश. किसान के पास न खुद खाने को है, न बैल को खिलाने को. बैल की भूख और उसकी निकली हुई हड्डियां उससे देखी नहीं जातीं. वह किसान अपनी कोठरी की छप्पर को खींच-खींच कर महेश के सामने डालने लगता है. एक दूसरा किसान उसे सलाह देता है कि वह भूखा क्यों मरता है. बैल को मार कर खा क्यों नहीं जाता. तब उस किसान के आंसू आ जाते हैं. वह कहता है कि जिसे बेटे की तरह पाला है, क्या उसे ही मार कर खा जाऊं. यह कहानी ऐसी है कि पाठक पढ़ते हुए रोने लगते हैं.
बैल अगर बूढ़े हो जायें, उनकी कोई उपयोगिता न रहे, तो उन्हें कसाई के हाथों बेच दिया जाता है. महान कथाकार प्रेमचंद की कहानी- ‘दो बैलों की जोड़ी’ इसी तथ्य का मार्मिक वर्णन है.
इस कथा के दो बैल ‘हीरा’ और ‘मोती’ कसाई के घर से भाग कर अपने मालिक उसी किसान के घर आ जाते हैं, जिसने उन्हें कसाई के हाथों बेचा था. क्योंकि, उनके लिए तो वही उनका आत्मीय, परिजन और मालिक था. उन्हें क्या मालूम कि कल तक जो उन्हें पालता आया था, उनके अनुपयोगी होने पर वही उन्हें मौत के हाथों सौंप रहा है. यह कहानी मनुष्य के लालच और उसके उपयोगितावाद तथा जानवरों के भोलेपन को बेहतरीन ढंग से दिखाती है.
आज के दौर में यह सोचना सचमुच मुश्किल लगता है कि कहानियों के नायक बैल भी हो सकते हैं. क्योंकि, आज के छोटे बच्चों से कोई पूछे, तो शायद वे बैल और बैलगाड़ियों तथा बैलगाड़ियों से की जानेवाली दूर-दराज तक की यात्राओं के बारे में बता ही न सकेंगे. हल भी शायद ही उन्होंने देखे हों. जब से खेती में मशीनों ने धावा बोला है, आदमी तथा अन्य जीवधारियों से उसके संबंध एकदम बदल गये हैं.
शरतचंद्र और प्रेमचंद ने अपने जीवन के आस-पास की कथाएं कहीं, मगर आज कोई कथाकार चाहे, तो भी बैलों और गुजरे हुए अतीत के बारे में क्या लिखेगा. अगर लिखेगा, तो भी खेतों में बैलों की वापसी नहीं करा सकेगा.
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