।। प्रमोद जोशी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
.. लेकिन रघुराम राजन समिति ने जो पैरामीटर बताये हैं, वे अपनी कहानी खुद कहते हैं. और केंद्र सरकार सीमांध्र के लिए जिस आधार पर विशेष पैकेज देने की बात कह रही है, वह बिहार-झारखंड में स्वयंसिद्ध है, सीमांध्र से पहले.
जिस तरह केंद्र सरकार तेलंगाना का वादा करके उससे भाग रही थी, लगभग उसी तरीके से बिहार-झारखंड को विशेष राज्य का दरजा देने से वह कन्नी काट रही है. राजनीतिक शोर में अकसर महत्वपूर्ण सवाल दब जाते हैं. सीमांध्र को पांच साल तक विशेष आर्थिक पैकेज देने की बात केंद्र ने तकरीबन स्वीकार कर ली है.
केंद्र को सिर्फ सीमांध्र की फिक्र क्यों है? इन्हीं कारणों से बिहार और झारखंड को विशेष दरजा देकर उनके आर्थिक विकास की मांग उठती रही है. वह उनकी अनदेखी क्यों कर रही है? क्या वजह है कि क्षेत्रीय असंतुलन का महत्वपूर्ण काम चुनावी शोर में दबता चला गया है, बावजूद इसके कि विशेषज्ञों ने लगातार इस ओर ध्यान दिलाया है?
सन् 2000 में जब बिहार का विभाजन हुआ था, तब राज्य के लिए तकरीबन पौने दो लाख करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की मांग की गयी थी. उसके पीछे वही तर्क था, जो आज सीमांध्र के तर्क हैं, पर तब उन्हें माना नहीं गया. केवल इसलिए कि विरोध के तीखे स्वर नहीं थे. विकास के रास्तों को राजनीति रोकेगी, तो यह संघीय प्रणाली के लिए खतरनाक होगी. क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने और पूरे देश के समावेशी विकास के रास्ते में अभी तमाम अड़ंगे हैं. केंद्र की राजनीतिक सत्ता आज भी सबसे महत्वपूर्ण है.
क्षेत्रीय आवाजें इसीलिए प्रभावशाली नहीं हो पातीं और विकास से जुड़े मामले राजनीति के शिकार हो जाते हैं. यह बात राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों में बार-बार देखी गयी है.
भारत में संघीय व्यवस्था तीन सतह पर काम करती है. केंद्र, राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र. 1992 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज भी इस व्यवस्था में शामिल हो गया. अनुच्छेद 268 से 281 तक राज्यों और केंद्र के बीच राजस्व संग्रहण और वितरण की व्यवस्था की गयी है. देश की अर्थव्यवस्था पंचवर्षीय योजनाओं और वार्षिक बजटों के आधार पर चलती है. योजना आयोग इस व्यवस्था का नियामक है. आर्थिक संसाधनों के संग्रहण और वितरण की व्यवस्था जटिल है. साथ ही तमाम राजनीतिक, क्षेत्रीय व सांस्कृतिक भावनात्मक मसले भी जुड़ते हैं. इसलिए इसमें निरंतर बदलाव चल रहे हैं.
चौथी पंचवर्षीय योजना के पहले हमारे यहां साधनों के वितरण की पारदर्शी व्यवस्था नहीं थी. 1969 में प्रसिद्ध समाजशास्त्री डीआर गाडगिल ने एक फॉमरूला बनाया, जिसके तहत राज्यों को दी जानेवाली 60 प्रतिशत राशि जनसंख्या के आधार पर 10 प्रतिशत प्रति व्यक्ति आय पर, 10 प्रतिशत टैक्स वसूली के प्रयत्नों पर, 10 प्रतिशत सिंचाई और बिजली परियोजनाओं पर और 10 प्रतिशत विशिष्ट समस्याओं के आधार पर तय की गयी.
विशेष राज्यों की अवधारणा भी तभी बनी. 1980 में इस फॉमरूले में संशोधन हुआ. इसके अंतर्गत 60 प्रतिशत राशि जनसंख्या पर, 25 प्रतिशत प्रति व्यक्ति आय पर, 7.5 प्रतिशत प्रदर्शन पर और 7.5 प्रतिशत विशिष्ट समस्याओं पर तय किया गया. पांचवें वित्त आयोग ने तीन राज्यों को विशेष राज्य का दरजा दिया-असम, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर. तब से विशेष राज्य की अवधारणा ने जन्म लिया है.
क्षेत्रीय असंतुलन को लेकर पिछले तीन दशक से निरंतर बहस ने इस समझ को विकसित किया है. हमें वास्तव में तेज विकास होते देखना है तो अलग-अलग क्षेत्रों की कमियों-ताकतों को समझने की जरूरत होगी.
अनुच्छेद 280 के तहत भारत के राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करते हैं. इसका उद्देश्य राज्यों और केंद्र के बीच राजस्व वितरण की व्यवस्था पर विचार करना है. मौजूदा 13वें वित्त आयोग का कार्यकाल 2010-2015 है. 2012 में वाइवी रेड्डी की अध्यक्षता में 14वें वित्त आयोग की स्थापना की गयी, जिसका कार्यकाल 2015-2020 है. वित्त आयोग के अलावा यहां योजना आयोग है, जो व्यावहारिक रूप से प्रभावशाली है. संघीय रिश्तों की बागडोर केंद्र के हाथ में है. उसके फैसलों पर राजनीति हावी रहती है. तेलंगाना गठन में यह नजर आया.
क्षेत्रीय असंतुलन दुनिया के ज्यादातर देशों में मिलता है, खासकर उन देशों में जिनका आकार बड़ा है. अकसर भौगोलिक और सांस्कृतिक कारण भी जिम्मेवार होते हैं. यह संयोग नहीं है भारत में नक्सली आंदोलन और आर्थिक विकास का अंर्तसबंध है. विकास से जुड़े दूसरे सवाल भी हैं. केवल संसाधनों का उपलब्धता बढ़ाने मात्र से विकास नहीं होता. संसाधनों को जज्ब करनेवाली मशीनरी और क्षेत्र की कार्य-संस्कृति भी मायने रखती है.
इसलिए शिक्षा और संस्कृति भी महत्वपूर्ण कारक होते हैं. बिहार और झारखंड में अपने इलाके की कामना जोर पकड़ रही है, तो वह इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि सांप्रदायिक और जातीय प्रश्नों पर विकास से जुड़े सवाल प्रभावी होने लगे हैं.
यह साफ तौर पर नजर आ रहा है कि देश के कुछ राज्य विकास के मानकों पर राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं. यह सब इसी तरह चला तो अंतर घटने के बजाय बढ़ेगा. इसका अर्थ है कि संरचनात्मक सुधार जरूरी है. जरूरी नहीं कि हमारा परंपरागत सोच सही हो. पिछले कुछ समय से बिहार और झारखंड से विशेष राज्य का दरजा देने की जो मांग उठी, उसके कारण केंद्र सरकार ने भी इस दिशा में विचार शुरू किया और पिछले साल के बजट भाषण में वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि इन प्रश्नों पर फिर से विचार करने की जरूरत है.
इसके बाद रघुराम राजन समिति का गठन हुआ. समिति ने कुछ पैरामीटर तैयार किये हैं, जिनके आधार पर उसने पिछड़े राज्यों की पहचान भी की है. रिपोर्ट के अनुसार ओड़िशा, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, उत्तर प्रदेश और राजस्थान देश में कम से कम विकसित राज्य हैं. पर लगता है कि केंद्र सरकार ने कमेटी की रपट को गंभीरता से नहीं लिया. कमेटी को 15 अगस्त से पहले अपनी रिपोर्ट देनी थी.
इस बीच इसके अध्यक्ष रघुराम राजन को रिजर्व बैंक का गवर्नर नियुक्त करने की घोषणा हो गयी. राजन ने 4 सितंबर को नया पदभार ग्रहण करने के पहले 2 सितंबर को अपनी रिपोर्ट वित्तमंत्री को सौंप दी, जिसे 26 सितंबर को जारी करते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस दिशा में आगे की कार्यवाही सुनिश्चित करने का आश्वासन भी दिया.
पर केंद्र ने अपने कदम खींच लिये और अब वह सरकार इससे भाग रही है. संसद के अंतिम सत्र में वित्तमंत्री ने कहा कि रिपोर्ट में किसी को विशेष राज्य का दरजा देने की सिफारिश नहीं है. पर समिति ने जो पैरामीटर बताये हैं, वे अपनी कहानी खुद कहते हैं. और केंद्र सरकार सीमांध्र के लिए जिस आधार पर विशेष पैकेज देने की बात कह रही है, वह बिहार-झारखंड में स्वयंसिद्ध है, सीमांध्र से पहले.