।। चंदन श्रीवास्तव ।।
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
पहले की तुलना में देश में संवाद-संचार का परिदृश्य बुनियादी तौर पर बदल गया है और यह बदलाव हमारी राजनीति को बदल रहा है. पहले राजनेता लोगों के दुखते कंधे पर हमदर्दी का हाथ रख कर, उनके घर-घर जाकर अपना विजन पहुंचाते थे.भोजपुरी में एक कहावत है- ‘नामे नाम ना त अकड़वले नाम.’ किसी का चाल-चलन ऐंचा-ताना हो, लोगों की जुबान पर उसका नाम समाज की नैतिक-भावना को चोट पहुंचानेवाले आदमी के रूप में दर्ज हो जाये तो, अड़ोस-पड़ोस और घर-आंगन से उसके लिए ताने के तौर पर यह कहावत उठती है. पंद्रहवीं लोकसभा समाप्त हुई और सांसद आपस के गिले-शिकवे दूर करके अपनी पीठ आप थपथपाते हुए अपने-अपने घर गये, तो यही कहावत याद आयी.
हंसुआ चाहे जितना भोथर हो, खींचता तो अपनी ही ओर है. कुछ इसी तर्ज पर सुषमा स्वराज को लगा कि इस संसद ने तो जनता-जनार्दन की भलाई के बड़े महत्वपूर्ण बिल पास किये हैं, सो इसे इतिहास में चिरकाल तक याद किया जायेगा. अब सुषमाजी से कौन कहे कि पंद्रहवीं लोकसभा को लोकभलाई के बिल पास करने के लिए कम और लोकतंत्र में जनता का जोर कम करने के लिए कहीं ज्यादा याद किया जायेगा.
पांच फरवरी से शुरू हुए संसद के इस शीतकालीन अधिवेशन में लोकसभा ने अपनी कुल 12 बैठकों में अधिसूचित कुल समय का 79 फीसदी हिस्सा संसदीय कार्यवाही को रोकने में लगाया. और, कार्यवाही रोकने के मामले में विद्वतजन से सजी राज्यसभा भी बहुत पीछे नहीं रही. राज्यसभा ने कार्यवाही रोकने में अपने अधिसूचित समय का 73 फीसदी हिस्सा गंवाया. पार्लियामेंट्री लेजिस्लेटिव रिसर्च के नये आंकड़े बताते हैं कि पंद्रहवीं लोकसभा के दोनों सदनों ने कुल समय का महज एक चौथाई हिस्सा (24 फीसदी) वास्तविक कामकाज में लगाया.
अगर संसद का एक मकसद है जनकल्याण के मुद्दे पर तर्कसंगत बहस, तो हैरत कीजिए कि प्रश्नकाल के लिए कुल अधिसूचित समय का महज 11 फीसदी हिस्सा सवाल उठाने में खर्च हुआ. लोकसभा में तारांकित कुल 220 प्रश्नों में महज 8 प्रश्न ऐसे रहे, जिनका उत्तर देने के लिए हमारे माननीय सांसदगण समय निकाल सके. संसदीय कार्यवाहियों के पिछले वक्त से तुलना करें, तो पंद्रहवीं लोकसभा ने अपने कामकाज को अंजाम देने में एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाला मुहावरा सच साबित किया.
1952 से 1967 के बीच तीन लोकसभाओं का गठन हुआ. हर लोकसभा औसतन 600 दिन कामकाज के लिए बैठी और अपने काम पर औसतन 3700 घंटे खर्च किये. लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा ने महज 357 दिनों की बैठक की और काम पर सिर्फ 1338 घंटे खर्च किये.तो क्या इन आंकड़ों के आधार पर मान लें कि आज के राजनेता अपनी कर्तव्य-भावना को लेकर एकदम से नकारे हैं? आजादी के बाद की शुरुआती लोकसभाओं की तुलना में पंद्रहवीं लोकसभा के कामकाज में आयी गिरावट की व्याख्या यह कह कर नहीं की जा सकती कि आज के नेता राजनीति को लेकर पहले की तरह सजग नहीं हैं. कारण यह कि राजनीति अपने आरंभिक रूप में संदेशों से सजा एक जटिल बयान (आख्यान) होती है.
लोकतांत्रिक राजनीति का तकाजा है कि वह लोगों तक पहुंचे. इसके बगैर उसकी ना तो कोई वैधता है और ना ही औचित्य. मसलन, पार्टियां, नेता, चुनाव-चिह्न्, एजेंडा और कार्यक्रम से लेकर उनकी रोजमर्रा की राजनीतिक गतिविधियां तक अपने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर अखिल भारतीय जनता तक एक संदेश के रूप में ही पहुंचती हैं.
ऐसा पहले भी था और आज भी है. इस तर्क से देखें तो जो नेता, पार्टी या फिर एजेंडा और कार्यक्रम जितना संदेश-कुशल होगा, लोगों के बीच उसकी लोकप्रियता और इस वजह से सफल होने की संभावना का ग्राफ भी उतना ही ऊंचा होगा.
संदेश-कौशल या कह लें संचार और संवाद की सफलता कई बातों पर निर्भर करती है. एक तरफ संदेश का विश्वसनीय यानी लोगों की वास्तविक जरूरत (और कामनाओं) को अभिव्यक्त करता होना जरूरी है, तो दूसरी तरफ उसका प्रासंगिक होना भी. लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हों तो आप अपनी राजनीतिक उपलब्धियां गिनाने के नाम पर खुशहाली के संदेश चाहे जितने गढ़ लें, वे विश्वसनीय नहीं होंगे.
इसी तरह गरीबों पर महंगाई की मार सबसे ज्यादा पड़ी है, उसके पास आप पार-राष्ट्रीय संबंधों या फिर रक्षा सौदों में दलाली का मुद्दा लेकर जायें, तो वह विश्वसनीय भले हो, प्रासंगिक नहीं रहेगा. इसके साथ ही संदेश का चुटीला होना भी जरूरी है. जो बात आंख-कान को चुभे नहीं, वह मन में देर तक दर्ज भी नहीं हो पाती. साथ ही जितना संदेश का विश्वसनीय, प्रासंगिक और चुटीला होना जरूरी है, उतना ही जरूरी है संदेश का अपने मनचीते श्रोता-पाठक-दर्शक तक बारंबार पहुंचना. लेकिन इसमें भी एक पेंच है. लोग यही नहीं देखते कि उन तक विश्वसनीय, प्रासंगिक संदेश बारंबार पहुंच रहा है या नहीं, वे यह भी देखते हैं कि संदेश देनेवाला कौन है, उसकी पहचान या छवि संदेश से निकलनेवाले सच से मेल खाती है या नहीं.
पहले की तुलना में देश में संवाद-संचार का परिदृश्य बुनियादी तौर पर बदल गया है और यह बदलाव हमारी राजनीति को बदल रहा है. पहले राजनेता लोगों के दुखते कंधे पर हमदर्दी का हाथ रख कर, उनकी जीयनी-मरनी में शामिल होकर, प्रभातफेरी, जुलूस और धरना-प्रदर्शन के स्थानीय आयोजनों के जरिये अपना एक भरोसेमंद चेहरा कायम करते और लोगों के घर-घर जाकर अपना विजन पहुंचाते थे. कुल-गोत्र-जाति की पुरानी संरचनाएं इसमें सहायक थीं.
आज संचार-माध्यमों की बढ़ती हुई संख्या और संवाद की बढ़ी हुई बारंबारता ने संवाद-कौशल के पुराने रूप को बदल दिया है. संसद में मिर्च स्प्रे करता, शीशे तोड़ता या फिर विधानसभाओं में मार्शल को थप्पड़ मारता और अधनंगा होता नेता जानता है कि क्षण मात्र में उसकी इस करनी की सचित्र-कथा लोगों तक पहुंचेगी. उसे भरोसा होता है कि एक बार लोगों के मन में नाम दर्ज हो जाये, तो वह अपनी आक्रामक प्रचार मशीनरी के भरोसे चुनाव के वक्त लोगों में अपना खास परिचय भी बैठा लेगा. उसे यह पता होता है कि उसके कृत्य का औचित्य यह संदेश सुना कर सही साबित किया जा सकता है कि उसने ऐसा गरीब को राशन दिलाने के हक में या फिर गरीब विरोधी सरकारी नीति की वजह से किया.
वास्तविक राजनीतिक घटनाक्रम लोगों की नजरों से जितना दूर होगा, उसे संदेश में ढालने की जरूरत उतनी ही तीव्र होगी. यह तीव्रता संदेश, संदेशदाता और वांछित श्रोता के बीच कायम पूर्व-परिचय आधारित सामुदायिक भरोसे के संबंध को उतना ही कमजोर करेगी. संसदीय कार्यवाहियों की मर्यादा का उलटफेर दरअसल बदले संवाद-परिदृश्य के बीच नेता व जनता के बीच बढ़ती दूरी का ही एक सबूत है.