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कब धुलेगा गंगा का मैल?
िबभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ भारत की राष्ट्रीय नदी गंगा एक बार फिर चर्चा में है. सिर्फ राजनीतिक कारणों से ही नहीं, एक तरफ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने सात आइआइटी के कन्सोर्शियम को तलब किया है, तो दूसरी तरफ उत्तराखंड हाइकोर्ट ने एक पीआइएल पर सुनवाई करते हुए केंद्र और उत्तराखंड सरकार को […]
िबभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
भारत की राष्ट्रीय नदी गंगा एक बार फिर चर्चा में है. सिर्फ राजनीतिक कारणों से ही नहीं, एक तरफ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने सात आइआइटी के कन्सोर्शियम को तलब किया है, तो दूसरी तरफ उत्तराखंड हाइकोर्ट ने एक पीआइएल पर सुनवाई करते हुए केंद्र और उत्तराखंड सरकार को कड़ा निर्देश जारी किया है. कन्सोर्शियम ने ट्रिब्यूनल को बताया कि केंद्र और राज्य के क्रियान्वयन के बीच तालमेल न होने के कारण भ्रम की स्थिति बनी हुई है.
गंगा की जब भी बात होती है, तो उसे वाराणसी और हरिद्वार को संबंध में ही देखा जाता है, विशेषकर वाराणसी, कुछ आस्था के कारण और कुछ राजनीतिक कारणों से. वाराणसी शहर भी हाल में अपने प्रदूषण स्तर के कारण चर्चा में रहा है.
गंगा गोमुख से निकल कर देश के पांच राज्यों में ढाई हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा करते हुए देश के आधे से कुछ कम जनसंख्या के लिए जीवन का प्रवाह और आस्था की धारा है.
लेकिन, अपनी यात्रा में गंगा एक बडी जनसंख्या के जीवन को पखारते हुए लगातार गंदी होती गयी है. बढ़ती जनसंख्या और औद्योगिक इकाइयों से कदम मिलाते हुए घरेलू मैले और रासायनिक कचड़े को ठिकाने लगाने के वैज्ञानिक उपाय नहीं किये गये. कानून और नियम तो बनाये गये, लेकिन उनको लागू करने में कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई गयी. नतीजा यह हुआ कि गंगा एक्शन प्लान के दो दौर के बाद और अब गंगा रिवर बेसिन मैनेजमेंट प्लान के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि गंगा और गंदी हो गयी. गंगा सफाई के अब तक सारे प्रयास असफल हुए हैं और हमारी कमजोरियों की कलई खोलते गये हैं.
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वर्ष 1979 में सेंट्रल बोर्ड ऑफ प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ वाटर पॉल्यूशन, जो अब केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कहलाता है, को जल प्रदूषण पर एक समग्र रिपोर्ट तैयार करने का निर्देश दिया. यह रिपोर्ट वर्ष 1985 में केंद्र सरकार को सौंपी गयी.
फरवरी 1985 में केंद्रीय गंगा प्राधिकरण की स्थापना की गयी. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 14, जून 1986 को वाराणसी में गंगा एक्शन प्लान का प्रथम दौर प्रारंभ करते समय गंगा को फिर से स्वच्छ बनाने का संकल्प लिया था.
तमाम रिपोर्टों के मुताबिक, गंगा में प्रदूषण का मुख्य कारक, लगभग पचहत्तर से अस्सी प्रतिशत, शहरों से उड़ेला जा रहा घरेलू मैला है. बाकी हिस्सा औद्योगिक प्रतिष्ठानों से प्रवाहित किये जा रहे जहरीले उत्सर्जन हैं.
गंगा एक्शन प्लान घरेलू मैले का उपचार तथा औद्योगिक उत्सर्जन पर रोक लगाने के लिए एक फौरी कार्यक्रम था. प्रथम दौर में गंगा के किनारे स्थित पच्चीस बड़े शहरों को लक्ष्य किया गया. इस दौर में ₹433.3 करोड़ की राशि खर्च हुई. गंगा एक्शन प्लान का प्रथम दौर मार्च 2000 में बंद कर दिया गया. इसी बीच वर्ष 1993 में गंगा एक्शन प्लान का दूसरा दौर 1498.86 करोड़ रुपये के प्लान के साथ यमुना, दामोदर, गोमती और महानंदा नदियों की सफाई के लिए शुरू कर दिया गया. बाद में गंगा एक्शन प्लान को नेशनल रिवर कंजर्वेशन प्लान में मिला दिया गया. इसी बीच सन् 2009 में नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्राधिकरण की संस्थापना कर दी गयी. और अब नेशनल गंगा रिवर प्राधिकरण के क्रियान्वयन एजेंसी के रूप में नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा की स्थापना कर दी गयी है. इसके अतिरिक्त एक नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा की स्थापना कर बीस हजार करोड़ रुपये के आउटले के साथ पंचवर्षीय नमामि गंगे प्रोजेक्ट भी प्रारंभ कर दिया गया है. नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल के समक्ष आइआइटी कन्सोर्शियम का बयान- क्रियान्वयन एजेंसियों की बहुलता और उनके मध्य सामंजस्य की कमी गंगा सफाई की प्रगति में बाधक सिद्ध हो रही है- सही सिद्ध हो रहा है. एक प्रश्न के जवाब में कन्सोर्शियम ने यह भी बताया कि उन्हें जो आंकड़े राज्य सरकारों और विभिन्न एजेंसियों से प्राप्त हो रहे हैं उनकी जांच वे नहीं करते हैं.
इस प्रकार देखा जा सकता है कि धनराशियां आवंटित कर खर्च की जा रही हैं, लेकिन प्रगति का सही आकलन नहीं हो पा रहा है. गंगा सफाई अभियान में खर्च हुई राशि के सदुपयोग पर बार-बार प्रश्न उठाये जाते रहे हैं. साल 2007 में माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित योजना आयोग की एक समिति ने स्वीकार किया कि यद्यपि कि गंगा सफाई अभियान की प्रगति सकारात्मक रही है, लेकिन उपलब्धियां आशा के अनुरूप नहीं रही हैं.
उद्योग के साथ कृषि पर भी उचित नियंत्रण की आवश्यकता है. पूरे गंगा नदी बेसिन में फसल-चक्र पानी की उपलब्धता के अनुसार तय होना चाहिए. खेती में रसायनों के उपयोग पर नियंत्रण होना चाहिए. गंगा में घटता जल-बहाव भी बड़ी चिंता का कारण है. इसके लिए दोष गंगा पर बने बांधों पर मढ़ दिया जाता है, लेकिन गंगा में जलधारा की गति बनाये रखने में तालाबों के लिए कोई भूमिका नहीं तय की गयी है.
नेशनल गंगा बेसिन प्राधिकरण की स्थापना गंगा एक्शन प्लान से प्राप्त सीख पर आधारित समन्वित कार्यक्रम के क्रियान्वयन के लिए किया गया. इस प्रोग्राम में प्रदूषण नियंत्रण उपायों के अलावा जन जागृति की भी व्यवस्था है. लोकहित की कोई भी योजना बिना लोगों की बृहद भागीदारी के संभव नहीं है.
औद्योगिक, नगरीय और कृषि विकास सब मनमाने तौर पर संचालित किया जा रहा है. आमजन को शिक्षित-प्रशिक्षित करना, उन्हें कानून की इज्जत करना सिखाना भी परियोजना का हिस्सा होना चाहिए.
आमजन के बीच जागरूकता की कमी के कारण ही उत्तराखंड हाइकोर्ट को मल-त्याग तक के लिए आदेश जारी करना पड़ा. लोगों को स्वयं अपने रहन-सहन में बदलाव लाना होगा, नहीं तो किसी प्रकार के प्रदूषण में कमी लाना असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य है. साथ ही समस्त परियोजनाओं के लिए एक एकीकृत केंद्रीय क्रियान्वयन और नियंत्रण की आवश्यकता है. अन्यथा परियोजना पर परियोजना तैयार होती रहेंगी. आवंटित धन बेतहाशा खर्च होता रहेगा, कभी सफलता हासिल नहीं होगी और भ्रष्टाचार पनपता रहेगा.
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