रामबहादुर राय,अध्यक्ष, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र
भारत के राजनीतिक इतिहास के पटल पर गहरी छाप छोड़नेवाले राजनेताओं में अटल बिहारी वाजपेयी का अहम स्थान है. सड़कों से पूरे देश को जोड़ना, नदियों को जोड़ने का फैसला करना, बीमारू संस्थाओं का इलाज, पोखरण परीक्षण से भारतीय संप्रभुता का शंखनाद, अंतरराष्ट्रीय दबावों में अटल रहना, उनके नाम के साथ-साथ उनके काम की भी खासियत रही है. दो दर्जन दलों के साथ संतुलन बना कर गंठबंधन धर्म का पालन करते हुए सरकार चलाना वाजपेयी जी की सर्व-समावेशी शख्सीयत का सबसे बड़ा उदाहरण है. जनप्रिय राजनेता, कवि, प्रखर वक्ता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी को आज 92वें जन्मदिन की शुभकामनाओं से साथ उनके चार दशक के राजनीतिक सफर पर विशेष प्रस्तुति…
अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी राजनीतिक शुरुआत जनसंघ से की थी. भारतीय राजनीति में उनका योगदान बहुत बड़ा है. इस रूप में बड़ा है कि साल 1998 में पहली बार वास्तव में अटल जी के ही नेतृत्व में केंद्र में एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी, जब वे दूसरी बार प्रधानमंत्री बने थे. पहली बार 1996 में वे प्रधानमंत्री बने थे, लेकिन तब उसे केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तब राष्ट्रपति जी ने एक सिद्धांत के आधार पर सरकार बनाने का न्योता दिया था और लोगों ने अटल जी को स्वीकार किया. साल 1998 से पहले भी केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थीं, लेकिन अपने मूल चरित्र में वे गैर-कांग्रेसी सरकारें नहीं थीं. मोरारजी देसाई को गैर-कांग्रेसी नहीं कहा जा सकता. वीपी सिंह को भी इसी श्रेणी में रख सकते हैं. लेकिन, अटल जी के नेतृत्व में 1998 में जो सरकार बनी, वही केंद्र में पहली वास्तविक गैर-कांग्रेसी सरकार थी. इसका श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी जी को ही जाता है. और इस तरह से भारतीय राजनीति दो ध्रुवों पर खड़ी हुई- कांग्रेस और भाजपा. भारतीय राजनीति की यह सबसे बड़ी घटना रही, क्योंकि आजादी के बाद से अरसे तक यही माना जाता रहा कि केंद्र में कांग्रेस का कोई विकल्प है ही नहीं. अटल जी ने इस विकल्पहीनता को तोड़ दिया और बताया कि- ‘विकल्प’ है. अटल जी ने 24 दलों के गंठबंधन वाली एनडीए की सरकार को चलाया और किसी को कोई शिकायत नहीं हुई.
भाजपा भारतीय राजनीति में जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, उसके बारे में लोगों ने जो भ्रम पैदा किया था और खासकर कम्युनिस्टों ने जो गलत धारणाएं फैलायी थीं, अटल जी की सरकार बनने के बाद वह सब टूट गयीं. अटल जी ने अपने शासनकाल में अपने आचरण से और नीतियों से भाजपा पर लगे उन तीन मुख्य आरोपों को पूरी तरह से गलत साबित कर दिया कि भाजपा एक सांप्रदायिक पार्टी है, मुसलमानों के खिलाफ है और इसकी आर्थिक नीतियां गरीबों के हक में नहीं हैं. अटल जी कहा करते थे कि इस देश में आजादी के पहले जिस तरह से मुसलमान रहते आये थे, ठीक उसी तरह आगे भी वे रहेंगे, उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा. यही अटल जी का सबके लिए समान सोच वाला व्यक्तित्व था.
अटल बिहारी वाजपेयी एक कवि हृदय व्यक्ति जरूर हैं, लेकिन वे बहुत बड़े कवि नहीं हैं, जैसा कि उनकी स्तुति में लोगों ने मान लिया है. उनकी कविता एक तुकबंदी के अलावा कुछ भी नहीं है. लेकिन हां, कविता की तुकबंदी विधा के ऐतबार से अटल जी तुकबंदी में एक बड़े कवि जरूर हैं.
अटल जी की नेतृत्व क्षमता का आयाम ऐसा है, जो उन्हें बाकी बड़े नेताओं से अलग बनाती है. जनसंघ और भाजपा के बड़े नेताओं- बलराज मधोक, जगन्नाथ राव जोशी, यज्ञ दत्त शर्मा और नानाजी देशमुख, ऐसे लोगाें की तुलना में जब अटल बिहारी वाजपेयी को देखते हैं, तब अटल जी की नेतृत्व क्षमता का पता चलता है. कद और विद्वता में अटल जी से बलराज मधोक कहीं बड़े जरूर थे, लेकिन मधोक ज्यादा समय तक चल नहीं पाये, क्योंकि अपने सहयोगियों को नाराज करने में मधोक को महारत हासिल थी. उसके विपरीत अटल जी न सिर्फ सहयोगियों को साथ लेकर चलते थे, बल्कि विपक्षी नेताओं का भी सम्मान करते थे. अटल जी के पूरे राजनीतिक जीवन में कोई एक ऐसा अवसर खोजना मुश्किल है, जिसमें अटल जी ने अपने किसी सहयोगी को नाराज किया हो. जिस पृष्ठभूमि में भारतीय जनसंघ भारतीय जनता पार्टी बनी और काम करती रही है, उसको अगर कोई ठीक से पहचान ले, तो लंबे समय तक राजनीति में बने रहने में कोई अड़चन नहीं आती है. अटल जी ने यह जान लिया था, लेकिन यह सूझ-बूझ और समझ दूसरे नेताओं में नहीं थी. यही वजह है कि बलराज मधोक और अटल जी के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता थी, लेकिन अटल जी बने रह गये और मधोक बाहर हो गये. इसी तरह जनसंघ के मौली चंद्र शर्मा भी एक जमाने में थे, जिन्हें बाहर जाना पड़ा.
हर राजनीतिक दल का अपना एक स्वभाव होता है. अटल जी ने अपनी वैचारिक शक्ति के चलते भाजपा का स्वभाव समझ लिया था और उसके अनुरूप उन्होंने अपने को ढाल लिया था. यह चीज उनके निर्णयों में दिखायी पड़ता है. अटल जी की यह नेतृत्व क्षमता ही थी कि उन्होंने पार्टी के भीतर अपना कोई धड़ा या गुट नहीं बनाया, जैसा कि कुछ पार्टियों के नेता ऐसा करते हैं और पार्टियां कई धड़ों में बंटी नजर आती हैं. अयोध्या आंदोलन को लेकर भाजपा ने जो भी निर्णय किया, उससे अटल जी असहमत थे. उस वक्त दो ही लोग असहमत थे- अटल जी और जसवंत सिंह. जसवंत सिंह ने तो अपनी असहमति खुल कर जतायी, लेकिन अटल जी की खूबी यह थी कि उन्होंने अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से जाहिर नहीं होने दी. हां, व्यवहार में अटल जी अयोध्या आंदोलन के किसी भी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए. लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा में कहीं नहीं दिखे. लेकिन, इससे भाजपा में जो उनका स्थान था, वह कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा ही. कह सकते हैं कि एक तरह से अटल जी ने अपनी अपरिहार्यता बनाये रखी. इसी का परिणाम था कि नवंबर 1995 में जब भारतीय जनता पार्टी का मुंबई में अधिवेशन हुआ, तब लालकृष्ण आडवाणी को यह कहना पड़ा कि अगर भविष्य में भाजपा की सरकार बनती है, तो अटल जी ही प्रधानमंत्री बनेंगे. इसके बाद अटल जी ने आडवाणी जी से पूछा भी कि आपने ऐसी घोषणा क्यों की. आडवाणी ने जवाब दिया कि भले ही आंदोलन के कारण भाजपा में मेरा स्थान ऊंचा हो गया है, लेकिन जनमानस में अाप ही छाये हुए हैं. और सरकारें जनमानस के लिए ही बनती हैं. यही अटल जी के व्यक्तित्व का आयाम है, जो उन्हें बाकी सभी भाजपा नेताओं से ऊंचा बनाता है. जाहिर है, अटल जी जैसा जन नेता ही एक कुशल राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता रखता है.
समय बदलता रहता है. गुजरे समय के व्यक्तित्व से खाली हुए स्थान को आनेवाले समय का कोई व्यक्तित्व पूरा नहीं कर सकता. देशकाल में हर समय और हर स्थान की अपनी अहमियत होती है. जब भाजपा को अटल जी के नेतृत्व की जरूरत थी, तब अटल जी दे रहे थे. और अब भाजपा को जैसा नेतृत्व चाहिए, वैसा नरेंद्र मोदी दे रहे हैं. राजनीति में इस कथन का कोई अर्थ नहीं कि मौजूदा भाजपा को अटल जी की कोई कमी खल रही है. हां, यह कहा जा सकता है कि अटल जी से जो कुछ छूट गया रहा होगा, उसकी भरपाई नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. लेकिन, स्वास्थ्य कारणों से अटल जी के राजनीतिक जीवन से दूर होने से भाजपा में नेतृत्व की कमी है या वह दिशाहीन हो गयी है, ऐसा मैं नहीं मानता. कोई पार्टी या कोई व्यक्ति तभी भटकता है, जब उसको रास्ता मालूम हो.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)