पिछले दिनों हुई दिल्ली विधानसभा की गतिविधियों पर नजर डालें तो एक बात साफ हो जाती है कि यदि केजरीवाल विरोधियों द्वारा कहे जानेवाले पारंपरिक रास्ते को अपनाते तो यह एक तरह से ‘आप’ द्वारा अपनायी गयी नकाबपोशी ही होती.
यह फिर परिवर्तन की राजनीति नहीं कही जा सकती थी. अगर हम केजरीवाल द्वारा लिये गये तथाकथित गैरसंवैधानिक रास्ते को देखें, तो यह आरोप भी खोखला ही लगता है. अगर आम सहमति से ही लोकतंत्र चलता है, तो फिर यह आरोप भाजपा और कांग्रेस पर भी लगाये जा सकते हैं कि उन्होंने एक अनुभवहीन सरकार को आगे बढ़ने का मौका व अपेक्षित सहयोग नहीं दिया.
यदि जनलोकपाल के लिए सारी पार्टियां इतनी ही प्रतिबद्ध थीं तो उन्होंने उस बिल को सदन के पटल पर क्यों नहीं रखने दिया. रही केंद्र से पहले मंजूरी लिये जाने की बात, तो यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि केंद्र सरकार का रवैया इस बिल पर इतना ही गैर राजनीतिक होता तो शायद केजरीवाल आज सीएम ही न हुए होते. बात यहां हमेशा से प्रक्रियाओं का बहाना बना कर सरकार चलाने की आदत और इच्छाशक्ति की कमी की रही है जिसने एक आंदोलन से जन्मी इस पार्टी को मुद्दे दिये.
यदि राष्ट्रीय पार्टियां संविधान से इतना ही प्यार रखती थीं, तो उन्हें उन मुद्दों को समाप्त कर देना चाहिए था जिन पर अरविंद केजरीवाल इतनी बड़ी इमारत खड़ी करने की कोशिश कर रहे थे. क्या ये जोखिम हमारी राष्ट्रीय पार्टियां लेने की स्थिति में थीं? ऐसे अब तो यह संभव भी नही रहा! कुल मिला कर कहें तो अब समय बदल गया है. अब केजरीवाल करेंगे और आप सब महारथी देखेंगे. रही वैधता की बात तो यह देश की जनता ही तय करेगी कि किसे कहं तक जाना होगा.
सुदीप रंजन, रांची