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भिंडी बाजार बनाम राजनीति

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार राहुल गांधी ने कहा- नोटबंदी पर फैसले को चुनौती देनेवाला मेरा भाषण तैयार है, लेकिन संसद में मुझे बोलने से रोका जा रहा है. मुझे बोलने दिया गया तो भूचाल आ जायेगा. सरकार की शिकायत है कि विपक्ष संसद को चलने नहीं दे रहा. उधर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा है […]

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
राहुल गांधी ने कहा- नोटबंदी पर फैसले को चुनौती देनेवाला मेरा भाषण तैयार है, लेकिन संसद में मुझे बोलने से रोका जा रहा है. मुझे बोलने दिया गया तो भूचाल आ जायेगा. सरकार की शिकायत है कि विपक्ष संसद को चलने नहीं दे रहा. उधर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि सांसद अपनी जिम्मेवारी निभायें.
आपको संसद में चर्चा करने के लिए भेजा गया है, पर आप हंगामा कर रहे हैं. उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को गुजरात के बनासकांठा में हुई किसानों की रैली में कहा- ‘मुझे लोकसभा में बोलने नहीं दिया जाता, इसलिए मैंने जनसभा में बोलने का फैसला किया है.’
पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री ने मुरादाबाद की रैली में गरीबों से कहा था- ‘आपके जनधन खाते में जिसने भी पैसा जमा किया, वह पैसा मत निकालना. जिन लोगों ने गरीबों के खाते में पैसा डाला है, वे जेल जायेंगे. मैं इसके आगे की भी सोच रहा हूं.’ नरेंद्र मोदी के इस बयान से सरकारी नीति का संकेत मिलता था. यह बात ऐसे मौके पर कही गयी थी, जब संसद का सत्र चल रहा था. उनके विरोधियों को इस बात पर आपत्ति होनी चाहिए थी कि प्रधानमंत्री संसद के बाहर नीतिगत बयान दे रहे हैं. हैरत की बात है कि विपक्ष ने ऐसी कोई आपत्ति व्यक्त नहीं की.
यह शोर का दौर है. सड़क पर, संसद में और चैनलों में शोर है. जबकि, जनता खामोशी से कतारों में खड़ी है. सत्तापक्ष और विपक्ष के पास कहने के लिए बहुत कुछ है, पर समझ में नहीं आता कि कौन क्या कह रहा है. कोई किसी की बात सुनना नहीं चाहता. विचार करने और सुनने का वक्त गया. अब शोर ही विचार है और हंगामा ही कर्म है. संसदीय कार्यवाही का प्रसारण यदि आप देखते हैं, तो असहाय पीठासीन अधिकारियों के चेहरों से आपको देश की राजनीति की दशा का पता लग सकता है.
देश का प्रधानमंत्री कहे कि मुझे बोलने नहीं दिया जाता. मुख्य विपक्षी दल का नेता भी यही कहे, तो सिर पीटने के अलावा और कुछ बाकी नहीं रहता. संसद के हरेक सत्र के पहले सर्वदलीय बैठकें होती हैं, कई बातों पर सहमतियां बनती हैं. फिर भी नेता अपनी बात क्यों नहीं कह पा रहे हैं? उन्हें बोलने से किसने रोका है? संसद का शीत सत्र 16 नवंबर से शुरू हुआ है और उसे 16 दिसंबर तक चलना है. सत्तापक्ष और विपक्ष मान भी जायें, तो कितना काम हो जायेगा? कितनी बहस हो जायेगी? और किन निष्कर्षों पर देश पहुंचेगा?
इस सत्र के अभी तक के पीआरएस आंकड़ों के अनुसार, लोकसभा की उत्पादकता 16 फीसदी और राज्यसभा की 19 फीसदी रही है. हर सुबह शोर के साथ दोनों सदन शुरू होते हैं और कुछ देर बाद स्थगन की घोषणा हो जाती है. सरकार का विचार इस साल बजट जल्द लाने का है, ताकि अगले साल की वित्तीय गतिविधियां दूसरे वर्षों की तुलना में पहले शुरू हो सकें. नोटबंदी से जनता परेशान है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा है कि वह जनता को साफ-साफ बताये कि स्थिति क्या है.
सरकार अपना पक्ष बताने के लिए कितनी रैलियां करेगी? और विपक्ष कितने आक्रोश दिवस आयोजित करेगा? क्यों नहीं दोनों पक्ष आमने-सामने बैठ कर पारदर्शी तरीके से बातें करते हैं? क्यों नहीं राजनीति संजीदा तरीके से व्यवहार करती? क्यों हंगामे को राजनीति का नाम दे दिया गया है? राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संसद में चल रहे हंगामे को लेकर पिछले हफ्ते एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा था- ‘आप चर्चा के लिए चुने गये हैं. काम करने के लिए संसद भेजे गये हैं. आपको अपना पूरा वक्त अपनी जिम्मेवारियां निभाने में लगाना चाहिए.’
अमूमन शिकायत इस बात की होती है कि बहुसंख्यक सत्तापक्ष अल्पसंख्यक विपक्ष को बोलने नहीं देता. लेकिन, राष्ट्रपति ने कहा- ‘आप बहुमत की आवाज दबा रहे हैं. सिर्फ अल्पमत ही सदन के बीचों बीच आता है, नारेबाजी करता है, कार्यवाहियां रोकता है और ऐसे हालात पैदा करता है कि अध्यक्ष के पास सदन की कार्यवाही स्थगित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता. बार-बार हंगामा करके आप दिखाना चाहते हैं कि आप जख्मी हैं, नाराज हैं.’
वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी अपनी नाराजगी जाहिर की थी. उन्होंने सभी पक्षों और पीठासीन अधिकारी को भी फटकार लगायी. सदन के स्थगित होने पर उन्होंने तमतमाते हुए जोर से कहा- ‘यह बहुत शर्म की बात है. जो लोग सदन में बाधा डाल रहे हैं, उन्हें बाहर कर देना चाहिए. यहां तक कि उनकी सैलरी भी काटनी चाहिए.’ लोकसभा अध्यक्ष सदन नहीं चला पा रही हैं और संसदीय कार्य मंत्री की भी सदन चलाने में कोई रुचि नहीं है. सदन अपने आप से ही चल रहा है. यह अराजकता चिंता का विषय है. अगर यही हमारी राजनीति है, तब उससे बहुत उम्मीद रखना छोड़ देना चाहिए.
नोटबंदी को लेकर लोकसभा में यही तय नहीं हो पाया कि चर्चा किस नियम के तहत हो. पाकिस्तान की ओर से लगातार हो रही आतंकी गतिविधियों की फिक्र सांसदों को नहीं है. कश्मीर में अराजकता खत्म नहीं हुई है.
आतंकवादी उड़ी और नगरोटा जैसे हमले कर रहे हैं. देश में जीएसटी लागू होनेवाला है. इन सब बातों को छोड़ कर जन-प्रतिनिधि शोर मचा रहे हैं. हंगामा भी संसदीय राजनीति का एक तरीका है, लेकिन यह तरीका तभी इस्तेमाल में लाया जाता है, जब सारे विकल्प खत्म हो चुके हों. पहले यह आखिरी विकल्प होता था, पर आज इसे संसदीय कर्म का विकल्प मान लिया गया है.
राष्ट्रपति ने इस साल दूसरी बार इस बात को उठाया है. इस साल फरवरी में बजट सत्र का आरंभ करते हुए उन्होंने याद दिलाया था- ‘लोकतांत्रिक मिजाज का तकाजा बहस एवं विमर्श है, न कि विघ्न और व्यवधान.’ उन्होंने सांसदों से कहा था, संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं.
उसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए. 2015 के शीत सत्र के अंतिम दिन राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने अपने वक्तव्य में संसदीय कर्म के लिए जरूरी अनुशासन का उल्लेख किया था और इसमें आ रही गिरावट पर अफसोस जाहिर किया था. बेशक राजनीति संसद से सड़क तक होनी चाहिए. पर संसद, संसद है. वह सड़क नहीं है. दोनों के फर्क को बनाये रखना जरूरी है.

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