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मेरे आंसुओं पे न जाना

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार भक्त और भगवान का संबंध काफी अटूट रहा है. इसमें भक्त का ही ज्यादा हाथ रहा, भगवान का उतना नहीं. भगवान का तो इतना ही योगदान काफी रहा कि उसने भक्त की मान्यताओं को अमान्य नहीं किया. करता भी कैसे, भक्त यह धमकी जो दे देता है- जो तुम तोड़ो […]

डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
भक्त और भगवान का संबंध काफी अटूट रहा है. इसमें भक्त का ही ज्यादा हाथ रहा, भगवान का उतना नहीं. भगवान का तो इतना ही योगदान काफी रहा कि उसने भक्त की मान्यताओं को अमान्य नहीं किया. करता भी कैसे, भक्त यह धमकी जो दे देता है- जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाहीं तोड़ूं रे! वह बेचारा तो यह कहने भी नहीं आ पाता कि वह नहीं है, क्योंकि जैसे ही वह कहने आयेगा, साबित हो जायेगा कि वह है.
भक्त की प्रार्थनाएं उसके बारे में काफी कुछ बताती हैं. जैसे यह कि वह काफी मूर्ख, खल और कामी वगैरह होता है और अपने इन गुणों का गर्वपूर्वक बखान कर इनके आधार पर भगवान से उसकी कृपा चाहता है, जैसे कोई चुनाव लड़ने का आकांक्षी नेता पार्टी-अध्यक्ष के समक्ष अपने पापों और अपराधों का बखान कर टिकट की दावेदारी पेश कर रहा हो- मैं मूरख, खल, कामी, कृपा करो भर्ता!
सूरदास तो इस होड़ में अपने को पतितों का नायक ही बता डालते हैं- हरि हौं पतितन कौ नायक! को करि सकै बराबरी मेरी, और नहिं कोऊ लायक! एक अन्य पद में वे अपनी दावेदारी यह कह कर भी जताते हैं कि दूसरों को तो जुम्मा-जुम्मा चार दिन ही हुए हैं पतित हुए, जबकि मैं जन्म से ही पतित हूं और इस तरह पतिताई में सबसे सीनियर हूं- प्रभु हौं सब पतितन कौ टीको, और पतित सब द्यौस चारि के, हौं तो जनमत ही कौ. कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत में जो जनमत ही कौ पतित होता है, उसके साथ ही जनमत होता है.
भगवान भी, चाहे वह राजनीति का हो या धर्म का, भक्त के इन्हीं गुणों पर रीझ कर अपनी कृपा का टिकट उसे थमाता रहा है. उसने कभी पलट कर नहीं पूछा कि तू मूरख, खल और कामी क्यों है, क्यों नहीं समझदार, भला और संयमी बनने की कोशिश करता, और नहीं करता तो न सही, पर इनके बल पर मुझसे कृपा की उम्मीद क्यों करता है और ऐसा करके मेरे बारे में क्या साबित करना चाहता है?
भगवान के कभी न पूछने-टोकने का ही यह नतीजा है कि भक्त कभी खुद को बदलने की जरूरत नहीं समझता, कोशिश तो फिर भला करेगा ही क्यों? बस वह अपनी अटूट भक्ति से ही उन्हें खुश करने की कोशिश करता रहता है.
यों तो आजकल भक्तों के अच्छे दिन आये हुए हैं, पर नोटबंदी के बाद से वे कुछ कठिनाई में हैं. इस बाबत अपने भगवान के रोज-रोज बदलते निर्णयों ने उन्हें अजीब धर्म-संकट में डाला हुआ है. आज जिस निर्णय के समर्थन में वे जमीन-आसमान एक कर रहे होते हैं, अगले दिन ही उन्हें उसके उलटे निर्णय के बचाव में आकाश-पाताल एक करना पड़ जाता है.
अपने ही पैसे वापस लेने के लिए कई-कई दिन लाइन में लगने और बहुतों के तो इस चक्कर में मौत के घाट भी उतर जाने का तो खैर उन्होंने सीमा पर लड़ रहे सैनिकों के उदाहरण से बचाव कर लिया, पर 8 नवंबर की आधी रात से हजार और पांच सौ के नोटों के महज कागज के टुकड़े रह जाने की घोषणा के बाद अब फिफ्टी-फिफ्टी योजना के जरिये उन कागज के टुकड़ों को वापस खरे नोटों में बदलने के निर्णय से कालाधन रखनेवालों पर कैसी चोट हुई है, यह बताना उन्हें भारी पड़ रहा है.
अब तो आम आदमी को होनेवाली परेशानियों की आंच उन तक भी पहुंचने लगी है. लेकिन, कुछ भी हो, कितनी भी परेशानी हो, कष्ट से चाहे आंसू ही क्यों न निकले पड़ रहे हों, मुंह से सबके यही निकल रहा है- मैं खुश हूं मेरे आंसुओं पे न जाना, मैं तो दीवाना, दीवाना, दीवाना…

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