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हमारी सैंडविच जेनरेशन

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार सवेरे प्रदीप तेजी से गाड़ी दौड़ाता जा रहा था, उसके बेटे को तेज बुखार था. कुछ दिन बाद, देर रात वह अस्पताल से लौट रहा था, पता चला कि उसकी मां को हार्ट अटैक हुआ है.प्रदीप इकलौता है, मगर उसके ऊपर अपने परिवार, माता-पिता, घर चलाने, नौकरी करने और मेहनत करके […]

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

सवेरे प्रदीप तेजी से गाड़ी दौड़ाता जा रहा था, उसके बेटे को तेज बुखार था. कुछ दिन बाद, देर रात वह अस्पताल से लौट रहा था, पता चला कि उसकी मां को हार्ट अटैक हुआ है.प्रदीप इकलौता है, मगर उसके ऊपर अपने परिवार, माता-पिता, घर चलाने, नौकरी करने और मेहनत करके आज के दौर में नौकरी बचाने की जिम्मेवारी है. उसकी पत्नी की हालत भी लगभग यही है.

एक दिन उसने कहा था- आंटी, हमारी जेनरेशन सैंडविच जेनरेशन है. हमारे ऊपर अपने बुजुर्गों, बच्चों, दफ्तर और दुनियादारी निभाने की जिम्मेवारी है. और हर एक को हमसे शिकायत भी है कि हमने यह नहीं किया, वह नहीं किया. न माता-पिता खुश हैं, न पत्नी और न बच्चे. बच्चों के स्कूल की एक पीटीएम में न जा पायें, तो बच्चे तो शिकायत करते ही हैं, सारे टीचर भी कहने लगते हैं कि हम अपने बच्चों पर ध्यान नहीं देते. ऊपर से जहां नौकरी करते हैं, वहां तो बाॅस को हमेशा शिकायत रहती है कि जो काम कल तक हो जाना चाहिए था, वह आज तक भी क्यों नहीं हुआ.

प्रदीप जैसे लाखों-करोड़ों युवा रात-दिन, कार, बाइक, साइकिल, मेट्रो, इ-रिक्शाॅ से दौड़ रहे हैं.

हो सकता है, एक ही दिन में इतनी जगह जाना हो, इतने काम करने हों कि कई याद ही न रहें. दिन के चौबीस घंटे भी जिम्मेवारी पूरी करने के लिए कम पड़ते हैं. दिन, हफ्ते, महीने, दिन-रात, कैसे बीत जाते हैं, यह पता ही नहीं चलता. एक जिम्मेवारी से छूटते हैं कि दूसरी आ खड़ी होती है. ऐसा लगता है कि सांस लेने की फुरसत नहीं. अपने स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि के बारे में कभी खयाल आता भी है, तो लगता है कि कल देखेंगे. मगर वह कल कभी नहीं आता. आखिर कौन सा ऐसा काम है जिसे छोड़ दें. परिवार छोटे हो गये हैं और जिम्मेवारियां इतनी बढ़ गयी हैं कि समझना मुश्किल है कि कब तक भागते रहना है.

इन युवाओं के चेहरे देख कर, इनकी परेशानियों और मजबूरियों को पढ़ा जा सकता है. दुख की बात यह है कि इनके ऊपर किसी का ध्यान भी नहीं है. अकसर बुजुर्गों की समस्याओं पर बात की जाती है. अदालतें उनकी सुनती हैं. उनके लिए काम करनेवाली स्वयंसेवी संस्थाएं हैं.

बच्चों और महिलाओं के लिए मदद की गुहारें लगाती आवाजें अकसर सुनाई देती हैं, सरकारें इन्हें मदद भी देती हैं. मगर, ऐसा लगता है कि इन युवाओं की बात सुननेवाला कोई नहीं. मान लिया गया है कि चूंकि ये युवा हैं, इसलिए इनके जीवन में न कोई परेशानी है और न कोई चुनौती. ये अगर बीमार भी पड़ें, तो कहा जाता है कि जवान हो, ठीक हो जाओगे. नौकरी चली जाये, तो किसी को बताने लायक नहीं, क्योंकि जो सुनेगा वह यही कहेगा कि जरूर गलती तुम्हारी ही रही होगी, वरना और भी लोग तो नौकरी करते हैं, उनकी नौकरी क्यों नहीं छूटती.

पति-पत्नी में कोई समस्या है, तो इन दिनों कोई उसे सुलझाने देना नहीं चाहता. समस्या बनी रहे, जिससे कि तीसरी पार्टी को पंच बनने का मौका मिलता रहे. आपने दो बिल्लियों और बंदर की कहानी सुनी होगी, जहां बिल्लियां रोटी के बंटवारे के लिए बंदर के पास पहुंचती हैं और बंदर पंच बन कर सारी रोटी खा जाता है. बिल्लियों को कुछ नहीं मिलता. इसीलिए प्रदीप ने एक दिन हंसते हुए कहा था- आंटी बचपन के बाद सीधा बुढ़ापा आना चाहिए. हमारी उम्र आनी ही नहीं चाहिए.

प्रदीप जैसी सैंडविच जेनरेशन के लोग हमें अपने आसपास हर जगह दिख सकते हैं. इन युवाओं को हमारी आलोचना की नहीं, हमारे प्यार और सहानुभूति की जरूरत है.

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